Friday, April 25, 2014

पहाड़, पेड़ और चिडि़याओं के चिंतन का चितेरा


चिंतक-चित्रकार जगदीश स्वामीनाथन आज ही के दिन हमसे विदा हुए थे। उनसे साक्षात् का सुयोग कभी नहीं हुआ पर अपने से दूर भी वह कभी नहीं लगे। पहाड़, पेड़ और चिडि़याओं की कला दीठ स्वामीनाथन की पाण ही है। सोचता हूं, यह सब तो कैनवस पर बहुत से और कलाकारों ने भी बनाए हैं फिर स्वामीनाथन से ही इनकी पहचान क्यों? शायद इसलिए कि रंग, रूप और विन्यस्त भावों की उनकी अंवेरी कैनवस लय विरल है। अनुभूति की सहज साधना लिए। वह कहते भी थे, ‘समूची कला ब्रह्माण्ड के रहस्यों का उद्घाटन है।’ और स्वयं उन्होंने ऐसा करते जीवन से जुड़ी संवेदनाओं को अपनी कला में जैसे गहरे से बुना। यह है तभी तो आदिवासी कलाओं की तुतलाहट को भी पहचानते बखूबी उसे आधुनिक कलाओं के समानान्तरण उन्होंने विश्लेषित भी किया।
बहरहाल, सप्ताह भर पहले की ही बात है। एक भोर जलमहल की पाल पर प्रयाग शुक्ल के साथ था। औचक वहां की पहाड़ी, पेड़ और पक्षियों को निहारते प्रयागजी ने स्वामीनाथन के शब्द याद किए, ‘तमाम कलाएं मनुष्य को संबोधित है’। औचक जहन में कौंधा, यह शायद संभव ही नहीं है कि पहाड़, पेड़ और चिडि़या को एक साथ अनुभूत करते कोई स्वामीनाथन को याद न करे। उनका कला चिंतन, कैनवस पर उकेरी आकृतियां और हां, पहाड़ पर लिखी कविताएं भी-इसीलिए हम चाहकर भी बिसरा नहीं सकते। कैनवस पर वह जो बनाते उनमें दृश्य नहीं देखने के अनुभवों की अनवरत श्रृंखला जो है! लोक से जुड़ी अद्भुत व्यंजना भी। स्मृतियां के चाक्षुष रूप वहां हैं तो वह ब्रश, रंग और रेखाओं की कलाकारी भर नहीं है, अनुभव से सिंचिंत सुनहरी दीठ रूप में हैं। देखने के बाद यह आप-हम-सबकी बन जाती है। 
मुझे लगता है, जगदीश स्वामीनाथन प्रकृति की गुम हुई कला लय की तलाश के चितेरे है। और फिर यह उनका ही चिंतन हैं जिसमें आदिवासी कला को वह ‘जादुई लिपि’ से अभिहित करते उसे हमसे बंचवाते हैं। याद करें, आदिवासी अंचलों की अपनी यात्रा को कला अनुभूतियों में ‘द परसीविंग फिंगर्स’ पुस्तक में उन्होंने जिया तो भारत भवन में ‘रूपंकर’ के जरिए आदिवासी कला को आधुनिक कला के बरक्स विश्लेषण का समकाल भी रचा। उनका कला चिन्तन देखने के अनुभवों की विरल कथा है। ‘पहाड़’ कविता की उनकी पंक्तियां देखें, ‘कभी कभी जैसे यह पहाड़/धुंध मे दुबक जाता है/और फिर चुपके से/अपनी जगह लौटकर ऐसे थिर हो जाता है/मानो कहीं गया ही न हो।‘ देखने का यह विरल अनुभव उनकी कविता में ही नहीं कैनवस पर मांडी पहाड़, पेड़ और चिडि़याओं में सदा के लिए जैसे बस गया है। भले वह इस समय सदेह हमारे साथ नहीं है पर कैनवस के अपने इन पात्रों के जरिए हमसे कभी दूर भी तो कहां हुए हैं!


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