Monday, April 21, 2014

जो रचेगा वही बचेगा

कलाकृति : सुनीत घिल्डियाल 

कलाओं की वैदिक कालीन संज्ञा शिल्प है। शिल्प का अर्थ आज का शिल्प नहीं। उसमें नृत्य, गायन, वादन, चित्र, मूर्ति, वास्तु सहित सभी हस्तककलाएं सम्मिलित है। शिल्प यानी कलाएं कारू (उपयोगी) भी है और चारू (कलात्मक) भी हैं। 

चित्रकला या मूर्तिकला में सादृश का अर्थ यथार्थ का अनुकरण है, वास्तव का बिंब। परन्तु अनुकरण कैसा? लौकिक नहीं। अनुकरण वह जिसमें अमूर्त को मूर्त करने के संदर्भ निहित होते हैं। एक कला का दूसरी कला से अंतःसंबंध। संगीत को चित्र में कैसे परिवर्तित करेंगे? वह तो अमूर्त है।...तो इस अमूर्त को बिंदु, वृत्त-उध्र्व-अधोमुखी रेखाओं और वृत्त चतुस्त्र परिमंडल के हर छोटे से छोटे भाग में, अंश में उसके स्वभाव को जब सांगीतिक रूप में खोजा जाएगा तो वह संगीत का चित्रण होगा। हेब्बार की रेखाओं को लें। घूंघरू बंधा पैर है पर वह नृत्य की पूरी संरचना का आभास करा देता है। देखने के हमारे अनुभव में उनकी रेखाएं आत्मरूप हो जाती हैं। और यह ऐसे ही नहीं होता है। इसके लिए कलाकार अपने को विसर्जित करता है। बगैर अपना विसर्जन किए किसी भी कला में पूर्णता संभव ही नहीं है। पूर्णता का अर्थ ही है-सृजन का विसर्जन। दर्शन की अभिव्यक्ति, रूप-प्रतिरूप और परारूप का चिरंतन ही तो है कला।

सुनीत घिल्डियाल काष्ठ पट्टिकाओं में अद्भुत कला रूप रचते हैं। इधर उन्होंने समय और जीवन को केन्द्र में रखते मोहक सर्जना की है। सूर्य और उसकी रश्मियों के साथ जीवन स्पन्दन से जुड़ा उनका एक चित्र विरल है। गाढे रंगों की उजास लय उसमें है। रंग संवेदना की भिन्न भंगिमाएं पर एक दूसरे में ओत-प्रोत।  यह विषय का एक तरह से निविषयीकरण है। सुनीत के कलाकर्म की यही बड़ी विशेषता है, वह रंगो की भाषा बंचाते हममें गहरे से बसते हैं। 
कलाकृति : सुनीत घिल्डियाल 

बहरहाल, कोई भी कला आकर्षित तभी करेगी जब उसमें कलाकार स्वयं कहीं नहीं रहेगा। वह अपना विसर्जन करेगा, तभी कुछ गढ पाएगा। रच पाएगा। सुनीत के कलाकर्म में यही है, वह स्वयं वहां कहीं नहीं है। इसी से शायद कला के वह इस तरह के विरल रूप गढ़ पाते होंगें। सर्जन और फिर विसर्जन हमारे ऐसे ही तो परम्परागत नहीं है। उसके गहरे निहितार्थ हैं। दूर्गा पूजा, गणेश पूजा के बारे में विचारें। मिट्टी की मूरत बनती है। उसकी प्राण प्रतिष्ठा होती है। श्रृंगार करके जब उसकी पूजा की जाती है तो उसमें शक्ति का वास हो जाता है। और फिर ऐसे वह जब ऊर्जा प्रदान करने लगती है, वंदन करते मन विभोर हो नाच उठता है। यह प्रतिमा के जीवन्त होने का क्षण होता है। जड़ के चेतन में परिवर्तित होने का क्षण। अनुष्ठान समाप्त होने के बाद ही यह अनिवार्य हो जाता है कि सजी-संवरी, प्राण-प्रतिष्ठित प्रतिमा फिर से अमूर्त भूमंडल में विलीन हो जाए। इसीलिए विसर्जन होता है। फिर से सर्जन के लिए। तो कहें, बचेगा वही जो रचेगा।

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