Friday, June 13, 2014

कला मर्मज्ञ केशव मलिक का यह बिछोह


डेली न्यूज़ , 13 जून 2014  
कलाएं मन को रंजित करती है। पर कलाकृति के विश्लेषण का आधार मन का रंजित होना ही नहीं है। विश्लेषण में यह देखना भी होता है कि उसके यथार्थ के निहितार्थ क्या हैं? यह भी कि प्रामाणिकता के साथ उसके समय संदर्भ क्या है और यह भी कि कलाकार के आत्मगत तरीके के सौन्दर्य प्रतिमान वहां किस तरह के हैं। कहें, यह कला समीक्षक ही है जो दिख रहे के परे के संसार को भी अपनी दीठ देता है। अपने तई कलाकृति में रमता है-बसता है और फिर उसकी वस्तुपरकता में अपने को व्यंजित करता है। शायद इसीलिए समीक्षा को रचना के समानान्तर और बहुत से स्तरों पर तो रचना से भी बड़ा माना गया है। पर मुझे लगता है, भारतीय परिप्रेक्ष्य में कलाकृतियों के मूल्यांकन का रिवाज सही ढंग से अभी हमारे यहां बना ही नहीं है। समीक्षा के विश्लेषण मानदंड पश्चिम प्रेरित जो हैं! 

केशव मलिक ( 1924 -2014 )
भारतीय दीठ से कला समीक्षा के नए मानदंड स्थापित करने वालों में से एक कला मर्मज्ञ केशव मलिक बुधवार को काल कवलित हो गए। दिल्ली से लेखक मित्रों ने दूरभाष पर यह जानकारी दी। लगा, कोई अपना चला गया। आखिर हूं तो उनकी बिरादरी का ही!  गुरूवार को अखबार टटोले। सोचा, जिसने सदा ही दूसरों पर लिखा, कुछ उन पर भी लिखा मिलेगा पर निराशा ही हुई। हिन्दी अखबारों में उनके नहीं होने का समाचार ही नहीं था। समय का यही सच है। यहां हाजिर की हांती है। आप जब तक परिदृश्य में है, तभी तक खैर-खबर की कुछ गुंजाईश है!

केशव मलिक कलाकार की आत्मवृद्धि के जबरदस्त हिमायती थे। कलाकार कैसे कलाकृति में अपने को संबोधित करता है, इसके लिए कौनसे मानदंड अपनाता है और भीतर का उसका सौन्दर्यबोध क्या है? इनको अंवेरते हुए ही उन्होंने सदा कला समीक्षाएं लिखी। बाजार की अंधी प्रतिस्पद्र्धा को लेकर जब-तब वह अपने लिखे में मुखर भी रहे। याद पड़ता है, कभी बीकानेर के किले और हवेलियों में चित्रित कलाकृतियों पर उन्होंने सधा हुआ लिखा था। और, यह उनके लिखे की विशेषता ही थी कि उसमें कला का सौन्दर्यशास्त्रीय पक्ष ही नहीं बल्कि काल विशेष के जीवन यथार्थ पहलुओं का भी सांगोपांग विवेचन मिलेगा।

बहरहाल, कवि, कला समीक्षक केशव मलिक 5 नवम्बर 1924 को पंजाब के मियानी गांव में (अब पाकिस्तान) जन्में। कला विदूषी कपिला वात्स्यायन उनकी बहन है। उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री और ललित कला अकादेमी ने अकादमी का आजीवन फैलो मनोनीत किया था। संगीता गुप्ता ने उन पर एक फिल्म ‘केशव मलिक: द ट्रूथ आॅफ आर्ट’ भी बनायी। पर कलाकारों पर हजारों पन्ने लिखने वाली उस सख्शियत की कूंत यह है कि कलाकारों ने उनके जाने पर कोई नोटिस ही नहीं लिया। कवि नंद चतुर्वेदी का लिखा याद आ रहा है, ‘यह समय मामूली नहीं।’ 

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