Tuesday, June 17, 2014

कविताएं







मोक्ष पर्व

पहाड से बिछुड़
रो रहा जल,
अजस्त्र स्त्रोतों से
बहाती नीर
नदी मिल रही
सागर में।
समुद्र ही तो है
बहते पानी के
बंधन का-
मोक्ष पर्व!

ममेतर
तुम थे,
तो था
मैं,
और-
मेरा यह ममेतर!

भोर की नींद

उंघता सन्नाटा
बुन रहा-
उनके होने की ठौड़।
चुपचाप
बर्तन में उड़ेलकर दूध
चला गया दूधिया
कराते हुए
उनके न होने का अहसास।
पिता होते तो
रोबदार आवाज
करती नींद में खलल।
भले सामने कुछ नहीं कह पाते
पर
मन में पलता जल्दी उठा देने का रोश।
अब जबकि-
नहीं है पिता
लापता है,

भोर की वह नींद।

No comments: