मोक्ष पर्व
पहाड
से बिछुड़
रो
रहा जल,
अजस्त्र
स्त्रोतों से
बहाती
नीर
नदी
मिल रही
सागर
में।
समुद्र
ही तो है
बहते
पानी के
बंधन
का-
मोक्ष
पर्व!
ममेतर
तुम
थे,
तो
था
मैं,
और-
मेरा
यह ममेतर!
भोर की नींद
उंघता
सन्नाटा
बुन
रहा-
उनके
होने की ठौड़।
चुपचाप
बर्तन
में उड़ेलकर दूध
चला
गया दूधिया
कराते
हुए
उनके
न होने का अहसास।
पिता
होते तो
रोबदार
आवाज
करती
नींद में खलल।
भले
सामने कुछ नहीं कह पाते
पर
मन
में पलता जल्दी उठा देने का रोश।
अब
जबकि-
नहीं
है पिता
लापता
है,
भोर
की वह नींद।
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