Sunday, July 13, 2014

संगीत इतिहास का शिल्प संधान


कलाकृति : नवल सिंह चौहान 
मन को रंजित करती अवर्णनीय आनंद की अनुभूति कराने वाली कलाएं हैं-संगीत, नृत्य और नाट्य। इनके आस्वादक तो हम होते हैं परन्तु बैठकर इन पर चिन्तन की परम्परा हमारे यहां कम ही रही है। इससे बड़ा इसका उदाहरण क्या होगा कि संगीत के इतिहास की उलझन ही अभी तक सुलझी नहीं है। 
संगीत में रागों का इतिहास वेदों से जुड़ा मान लिया गया है। पर क्या यह सच है? हकीकत यह है कि वेदों के समय राग-संगीत था ही नहीं। वह बहुत पीछे आया। साम तो मंत्र था-स्वर-रूप-श्रुति। जबकि राग का मर्म ही आलाप है। कुछ दिन पहले संगीत, नृत्त और नाट्य के देश  मर्मज्ञ मुकुन्द लाठ की पुस्तक ‘संगीत और संस्कृति’ पढ़ रहा था। लगा, कलाओं से जुड़े बहुत से पढ़े और गुने पूर्वाग्रहों से मुक्त हो रहा हूं। मुकुन्दजी का संगीत चिन्तन इतिहास के संदर्भों के साथ शब्द व्यावहारिकी की मौलिकता लिए है। वह बताते हैं, ‘साम और राग की रूप कल्पना में मूलगत भेद है। साम बंधा हुआ रूप था, राग की तरह खुला नहीं। राग का मर्म ही आलाप है। राग सनातन है और सनातन का इतिहास क्या?’ इसीलिए वह राग को संभावना मात्र बताते उससे जुड़ी हमारी बहुतेरी भ्रांतियों का निवारण भी करते हैं।
बहरहाल, हमारे यहां संगीत का इतिहास नहीं है। पश्चिम में संगीत इतिहास इसलिए है कि वह रचना के आधार पर है। विगत की कृतियों की स्वर-लिपि वहां जो उपलब्ध है। स्वर-लिपि हमारे यहां भी मिलती है पर हमारे संगीत का रचना प्रकार ही ऐसा है कि उसके नियत रूपों को स्वर-लिपि में सहेजा नहीं जा सकता। मुझे लगता है संगीत के इतिहास के व्यवस्थित रूप पर किसी ने मौलिकता से विचारा है तो वह मुकुन्द लाठ ही हैं। संगीत की उनकी सूझ विस्मयकारी है। देश के वह पहले ऐसे संगीत मर्मज्ञ हैं जिन्होंने संगीत से जुड़ी हमारी परम्पराओं को गहरे से खंगालते उसके रूप पर मौलिक चिन्तन हमें दिया है। पर हमारे यहां की बड़ी विडम्बना यह भी है कि संगीत, नृत्त, नाट्य पर हिन्दी में मौलिक चिन्तन की पुस्तकें न के बराबर हैं। ‘संगीत और संस्कृति’ इस दीठ से अनूठी है। इसमें मुकुन्दजी की यह स्थापना मन को गहरे से मथती है, ‘संगीत और नृत्य के इतिहास में किसी गहराई से उतरे बिना हमारा कला के इतिहास का बोध ही नहीं हमारा संस्कृति-बोध भी अधूरा रहेगा।’ वह संगीत के इतिहास को आलाप का इतिहास बताते हैं। तानपुरे के इतिहास में हमें ले जाते हैं तो शिल्प के जरिए संगीत के इतिहास के संधान की राह भी दिखाते हैं। 
यह जब लिख रहा हूं, उनके चिन्तन में जैसे रम रहा हूं। संस्कृति से जुड़े संस्थानों को चाहिए, धु्रपद, ख्याल, ताल के साथ ही नृत्त और नाट्य की उनकी मौलिक दीठ को अवंेरने का कोई प्रभावी जतन करें। 

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