Friday, July 25, 2014

छायांकन के कला रूप

छाया : महेश स्वामी 
पेड़ जीवन है। पत्तों की सरसराहट, कोयल की कूक से जुड़ी संवेदनाओं का गान पेड़ों से ही तो है। और फिर यह तो श्रावण मास है। बरखा बूंदों से नहाई धरा की गंध का आस्वाद करते मन करता है, इसे गुने। कला के किसी रूप में इसे बुनें। मेघाच्छादित आकाश मेें श्रावण में ही तो मन पेड़ों का गान करता उनमें बसता है। 
यह लिख रहा हूं और मन पेड़ों की सिरजी छाया-छवियों में जा रहा है। पेड़ों के भांत भांत के रूप मन को स्पन्दित करने लगे हैं। छायाकार महेश स्वामी ने इस दीठ से अनुपम छायाछवियां सिरजी हैं। पेड़ों की छवियों में दृष्य संवेदनाओं के मर्म को उसने इधर अपने छायांकन में गहरे से जिया है। भिन्न आयामों में छायांकन में पेड़ और उससे जुड़ी दृष्य संवेदना के एकाधिक छायाचित्र पहली बार जब महेष ने दिखाए तो, मन हुआ एक साथ इस श्रृंखला के चित्रों का आस्वाद करूं। महेश ने इसे सहज शुलभ कर दिया। छवियों का आस्वाद करते, औचक ही श्रृंखला का नाम ‘रूंख’ सूझ गया। छायाचित्रों में वृक्ष केन्द्र में है परन्तु वहां सूर्य है, उसका उजास है और परछाई में घूले पेड़ों के झिलमिलाते रंगों की आभा भी है। पेड़ और उसकी टहनियांे, झाडि़यों से झांकती प्रकाश  किरणें और हरियाली में घूली दूसरे रंगों की अनंत छवियां! छाया-प्रकाश  की सौन्दर्य दीठ है रूंख श्रृंखला के छायाचित्र। 
छाया : महेश स्वामी 
बहरहाल, एक छायाचित्र है जिसमें कोहरे घूले दिन में पेड़ का बचा हरापन अंधेरे, धूंध को परे करता जीवन का जैसे संदेश  दे रहा है। सघन टैक्सचर में अगेन्स्ट लाईट के साथ धीरे से उदित होते सूर्य की सुनहरी धूप! कींकर की छांव से सिरजा सघन परिवेश!  ऐसे ही एक छायाचित्र में उगते सूर्य की सुनहरी धूप के अंश  से दीप्त टहनी और पत्तियां मोहक दृश्य  रच रही है।...और वह दृश्य  तो विरल है जिसमें पानी में (मिट्टी के पालषिए में) आसमान, पेड़ और बादल झांक रहे हैं। यह अक्श  का सौन्दर्य है। बिम्ब में प्रतिबिम्ब! छायाचित्रों में रूंख का यही तो है श्रावण में लुभाता दृश्य  लोक। दृश्य   में रूंख के रूपायित बिम्ब दर बिम्ब ऐसे ही हैं। टैक्सचर बना रूंख और प्रकाश  के विपरीत से उपजा अंधेरा पेड़ की झाड़ को और मथता सौन्दर्य के अविराम पाठ जैसे हमसे बंचाता है। छायाकला देखने की कला सूझ को व्यंजित करती है।
श्रावण भी तो मन की व्यंजना ही है।  दूसरी ऋतुओं में पानी बरसे तो मन न हर्षे पर श्रावण न बरसे तो मन तरसे। लहराते पेड़ों की हरियाली इसी मास में भाती है। आनन्द कुमार स्वामी ने कला को रूपान्तरण की संज्ञा दी है। क्यों? क्योंकि वहां नकल नहीं होती। पुर्नसर्जन होता है।  महेश  ने रूंख श्रृंखला के अपने छायाचित्रांे में यही किया है। यही है छायांकन का कला रूपान्तरण

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