Saturday, September 6, 2014

दिमाग नहीं दिल की गायकी ठुमरी

ठुमरी सुरों की सुरम्य दीठ है। छोटी-छोटी सपाट तानें, पर कहन के अंदाज में मौलिकता। कहें यह ठुमरी ही है जिसमें स्वरों की अनूठी सूझ से ही कलाकार सुनने वालों को चमत्कृत करता है। मौलिकता रचते। कोई कह रहा था, ठुमरी का क्या? विशेष बोलों का बारम्बार दोहराव ती तो है यह। सही है। वहां, शब्दांे की आवृति होती है पर उसे बरतते कलाकार जीवनानुभूतियों से औचक ही साक्षात् भी कराता है। दिमाग नहीं, दिल की गायकी जो है यह! मुझे लगता है, जीवन के तमाम रसों की व्यंजना किसी गान में है तो वह ठुमरी में ही है। 
बहरहाल, अभी बहुत दिन नहीं हुए। ठुमरी की प्रख्यात गायिका, बल्कि बहुत से स्तरों पर ठुमरी को गरिमायम लोकप्रियता दिलाने वाली गिरिजा देवी जयपुर में एक कार्यक्रम मंे आयी थी। बचपन से ही उनकी ठुमरी सुनता आ रहा हूं। सरस रागों में छोटी-छोटी बंदिशों की उनकी लयदार अदायगी मन को सदा ही भाती रही है। याद है, गिरिजादेवी की स्वरचित ‘घिर आई है कारी बदरिया...’ और ‘बैरिन रे कोयलिया तोरी बोली न सुहाय...’, सुनते मन अवर्णनीय आंनद में डूब-डूब जाता। उनकी शब्द व्यंजना ऐसी है कि मन विभोर हो जाता है। बोल-बनाव और आवृत्ति में अद्भुत समय प्रवाह! लोकमानस को छूती उनकी आवाज इस कदर साफ सूथरी और स्वर-सधी, सहज कि मन सुनते औचक गुनता-गुनगुनाता भी है। पर इधर जब मंच पर उन्हें सुना तो आयोजक संस्थाओं पर तरश आया, कुछ गुस्सा भी। लगा, मूर्धन्य कलाकारों के गान को लज्जित करने के ऐसे आयोजकीय उपक्रम नहीं ही होने चाहिए। जिन गिरिजादेवी के रिकाॅर्ड देशभर के रसिक श्रोता सुनते रहे हैं, वह उन्हें इस उम्र में जब गाते सुनते हांेगे तो क्या सोचते होंगे? उम्र के 90 वें दशक में चल रही गिरिजादेवी के गान पर क्या वय का असर न दिखेगा!
यह सही है, गिरिजादेवी या ऐसे ही देश के लब्धप्रतिष्ठि गायक-गायिकाओं के प्रति आज भी श्रोताओं में अथाह उत्साह है। यह भी सही है, कलाकार की कला कालजयी होती है। पर यह भी सही है, समय का प्रवाह स्वर, नृत्य को बाधित करते उम्र की अनुभूति कराता ही है। क्या ही अच्छा हो, हम गिरिजादेवी जैसे कलाकारों को बुलाएं और मंच पर उनके पूर्ववर्ती गाए बेहतरीन के रिकाॅर्ड के साथ उनके अनुभवों को सुनें। उनकी तान के नजारों का आस्वाद करें, उन्हें आलाप करते देखें और हां, वह अपनी पंसद के अपने गाए बेहतरीन रिकाॅर्ड मंच पर हमें सुनाए और फिर अपने गान से जुड़ी विलक्षणता की हमारी शंकाओं का समाधान करें। इससे बड़ी बात और क्या होगी कि जिनने हमें सुनने के संस्कार दिए, स्वरों का माधुर्य दिया-आयोजक संस्थाएं उन्हें आम श्रोताओं से साक्षात् कराएं। 
शंकित मन कह रहा है, क्या यह अच्छा लगेगा कि गिरिजादेवी जैसे किसी मूर्धन्य कलाकार को युवा पीढ़ी सुनने आए और उम्र के असर को उनकी गायकी से जोड़ते उनके संपूर्ण गायन को खारिज करते शास्त्रीय संगीत से ही तौबा करने की सोच ले! 


No comments: