Friday, September 19, 2014

कलाओं की सिनेमाई व्याख्या

गौतम घोष सिनेमा में कला की सूझ रखने वाले कैमरामैन-निर्देशक हैं। उनकी फिल्में और खासकर बनाए गए वृत्तचित्रों का आस्वाद करते लगता है, कला की विविधता में अनुभवों की आंख से वह संवेदना के दृश्य लिखते हैं। कभी सत्यजीत राय पर बनाया 100 मिनट का वृत्तचित्र ‘रे’ देखा था। छोटी-छोटी घटनाओं से कैसे जीवन का बड़ा वृत्त बनता है, वृत्तचित्र जैसे यह गहरे से देखने वालों को समझाता है। और वही क्यों, उस्ताद बिस्मिलाह खां, दलाईलामा और ऐसे ही घोष के दूसरे वृत्तचित्रों में भी है। उनका सिनेमा दृश्य संवेदना के अनूठे बिम्बों से साक्षात् कराने वाला है। 
बहरहाल, गौतम घोष कुछ दिन पहले जयपुर में थे। मुलाकात हुई तो वृत्तचित्र निर्मिति के उनके सरोकारों पर ही संवाद हुआ। कहने लगे, ‘वृत्तचित्र हमें सहायता करते हैं, भीतर के हमारे ज्ञान को तीक्ष्ण करने के लिए। जिस विषय को आप उनमें उठाते हैं, उसके लिए गहन कठिन शोध से गुजरना पड़ता है।’ वह जब यह कह रहे थे तो ‘स्टूडियो आॅफ डिवोशन’ के जरिए जयपुर की उनकी यात्रा को ही याद कर रहा था जिसमें दिन-रात एक करते उन्होंने अपनी इस फिल्म के लिए दृश्य दर दृश्य शूट किए थे। फिल्म के स्क्रिप्ट लेखक डेसमाॅन्ड लजारो के साथ उन्होंने ठौड़-ठौड़ जयपुर की ऐतिहासिक विरासत को कैमरे से अंवेरा। बातचीत में उन्होंने कहा भी, ‘कलाकार की कला को दिखाना है तो उससे जुड़ी संवेदना, अतीत और विरासत से जुड़े हमारे सराकारों को भी दृश्यमय करना होगा।’  और यह केवल वह कह ही नहीं रहे थे बल्कि कलाकार मित्र विनय शर्मा के स्टूडियों में जब वह दृश्य शूट कर रहे थे तो इसे जैसे अच्छे से समझा भी रहे थे। कोई तीन घंटे से अधिक समय उन्होंने स्टूडियो में विनय की कला के दृश्य शूट करने में लगाए। बेल्जियम में बनने वाले ‘म्यूजियम आॅफ सेक्रिड आर्ट’ के लिए बनाई जा रही ‘आर्ट आॅफ डिवोशन’ रजा, महावीर स्वामी, सतीश गुजराल, सुवा प्रसन्ना, सतीश गुप्ता, रेवा शंकर और विनय शर्मा के कलाकर्म पर आधारित है। पर जिस तरह से गौतम घोष इसे फिल्मा रहे थे, लगा इसमें कला के लिए कलाकार की तैयारी और उसकी उपज से जुड़े दृश्यों की रवानी भी होगी। 
पिछले दिनों जापान के महान फिल्मकार कुरासोवा की आत्मकथा ‘समथिंग लाइक एन आॅटोग्राफी’ पढ़ रहा था। इसमें वह स्थापित करते हैं कि तमाम कलाओ की आवाजाही के बावजूद सिनेमा अद्वितीय विधा है। वह लिखते हैं, ‘वहां नाट्य, दार्शनिकता, चित्रकला, मूर्तिशिल्प और संगीत है पर अंत में, सिनेमा, सिनेमा है।’ सच भी है। घोष जब कैमरा लिए स्थान, वस्तुओं के एंगल, लाइटिंग, कंपोजिशन और मूवमंेट के लिए रमे हुए थे, देर तक एकटक उन्हें ही देख रहा था। लगा, चाक्षुस प्रभाव में वह जैसे अपने तई दृश्य लिखने में लगे हुए थे। यह निरा संयोग तो नहीं ही था कि तभी सिनेमाई भाषा को नई प्रतिष्ठा देने वाले स्वीडन के फिल्मकार बर्गमैन और उनके कैमरामैन स्वेन निकविस्ट की याद भी ज़हन में कौंधी। 


No comments: