Saturday, September 27, 2014

घुम्मकड़ी है जीवन कला

संस्कृति माने संस्कार। ऐसे जिनसे जीवन जीने की कला सीखी जाती है। तमाम हमारी कलाएं साहित्य, धर्म, दर्शन, शिल्प की व्यंजना ही तो है। इसीलिए जितना हम अपने आप से बाहर निकलेंगे, घुमेंगे-उतना ही जीवन निखरेगा। जीवन का अर्थ ही है, गति। ऐतरेय ब्राह्मण का मंत्र है, ‘चरैवेति...चरैवेति।’ मंत्र कहता है, पथ पर जो निरंतर चलता रहता है, ईश्वर उसीका सखा और सहयात्री होता है। इसीलिए हे यात्री! चलता चल! चलता चल! जल कहीं ठहर जाता है तो सड़ांध मारने लगता है। बहना ही उसका जीवन है। इसीलिए तो कहा है, जो सभ्यताएं चलती रहीं, फली-फूली। जो ठहर गई, बस सदा के ठहर ही गई। बुद्ध ने भी कहा, ‘चरत भिक्खवै चरत।’ भिक्षुओं चलते रहो। राजस्थानी की तो कहावत ही है, ‘फिरै जका चरै।’ माने जो चलता है, उसे ही कुछ प्राप्त होता है। गति मति है।
राहुल सांकृत्यायन 
बहरहाल, भारतीय संस्कृति में चार पुरूषार्थ बताए हैं-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। कहते हैं, इनमें संतुलन स्थापित कर जीवन जीने की कला कहीं है तो वह भी चलने में ही है। किसी एक पुरूषार्थ में ही ठहर गए तो फिर जीवन व्यर्थ है। अथर्ववेद का ऋषि इसीलिए तो पूछता है, ‘कथं वातो नेलयति कथं न रमते मनः। किमापः सत्यं प्रेप्सन्तीर्नेलयन्ति कदाचन।।’ माने वायु क्यों स्थिर नहीं रहती? मानव-मस्तिष्क विश्राम क्यों नहीं करता? क्यों और किसी की तलाश में सरिता दौड़ती रहती है और अपनी धारा को एक क्षण के लिए भी नहीं रोकती? सृष्टि के हृदय में अनंत की सर्वव्यापी पुकार है। जो एक बार भी इस महान पुकार को सुनता है, वह सुगमता से समाज के आचार-विचार और बंधनों की जंजीरे तोड़ देता है। 
इसीलिए कहें, घुम्मकड़ी कला है। अपने आप को जानने की। सभी हमारे तीर्थ यही कराते है। व्यक्ति को मथते हैं। इसीलिए तीर्थ धर्म के मर्म माने गए हैं। आदि शंकराचार्य ने क्या किया? व्यक्ति को स्वयं को पहचानने की कला से साक्षात् कराया। चहुंदिशा भ्रमण की उनकी सोच की ही तो परिणति है, चार धाम स्थापना। दक्षिण में रामेश्वर, पूर्व में जगन्नाथ पूरी, पश्चिम में द्वारिका और उत्तर में बद्रीनाथ मठ के जरिए उन्होंने सनातन की स्थापना की। मूल उद्देश्य था लोग घर से बाहर निकलें। अपने आपको पहचानें। उस दुनिया को जानें जिसमें भरा पड़ा है, अथाह ज्ञान। यह तीर्थाटन ही तो है, आज का पर्यटन। अमृतलाल वेगड़ की नर्मदा पद परिकमा को ही लें। तीरे-तीरे नर्मदा! हजारों-हजार किलोमीटर की पदयात्रा। उनकी इस यात्रा को पढेंगे तो मन में आएगा, काश! हम भी उनके साथ होते। पर साथ की जरूरत भी क्यों? कोई साथ नहीं हो तो, अकेले ही चलें। कविन्द्र रवीन्द्र ने कहा है, ‘यदि तोर डाक शुने केउ ना आसे, तबे एकला चलो रे।’ अनथक यायावर राहुल सांकृत्यायन ने आखिर ऐसे ही तो नहीं न रचा होगा, घुम्मकड़ शास्त्र! ...तो जीवन जीने की कला सीखनी है तो घुम्मकड़ी करें। पर्यटक बनें। कल नहीं आज! आज नही ंअभी। चरैवेति...चरैवेति।


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