Saturday, November 1, 2014

छायांकन की सौन्दर्य संवेदना


छायांकन दृश्य  संवेदना की अनुभूतिपूरक व्यंजना है। क्षण जो घट रहा है, उसे कालातीत करने की कला। एक समय था जब गति, एंगल, कंपोजिशन के जरिए ही इस कला को पहचाना जाता था पर डिजिटल कैमरे आने के बाद स्थितियां बदल गई है।  आप किसी विषय, समय, कार्यक्रम को हजार तरह से क्लिक करें, एकाध तो कला की दीठ से बेहतरी लिए आएगा ही।
बहरहाल, छायांकन आंख की संवेदना से जुड़ी विरल कला है। छायाकार केे सौंदर्यबोध, दृश्य को अपने तई कैमरे से जीने, विषय में रमने और जो कुछ दिख रहा है-उससे अनुभूति में क्या कुछ हासिल हुआ है-यही सब तो है, जो छायांकन को तकनीक से कला में रूपान्तरित करता है। डिजिटल कैमरे आने के बाद छायांकन कला की कूंत क्या इसी सबसे नहीं होनी चाहिए!  इसलिए कि अब हर किसी के पास उच्च तकनीक के कैमरे हैं-मोबाई, आईपैड के जरिए। स्वाभाविक ही है, हर कोई छायाकार है। पर हजारों-लाखों के बीच अब  इस कला में बेहतरी की चुनौतियां भी कम कहां है!
कुछ दिन पहले अपने बेटे नीहार के साथ उसकी स्कूल सेंट जेवियर जाना हुआ। वहीं कक्षा 9 से 12 वीं तक के विद्यार्थियों की वार्षिक छायाचित्र प्रदर्शनी का आस्वाद भी किया। कला की दीठ से एक से बढकर एक छायाचित्र! लगा, नई पीढ़ी के पास छायांकन की संवेदना में जीवन का राग भी है, अनुराग भी। छायाचित्रों में तकनीक का जलवा ही नहीं था। स्थिर और चलायमान दृष्यों में भी कला की भावाभिव्यंजना गहरे से दिख रही थी। एक छायाचित्र था, छात्र राहुल शारदा का। हरियाली में उभरते इंद्रधनुष का सुनहरा दृष्य। एक और छायाचित्र। दोनों और पेड़ और घास। बीच से निकलती छोटी सी पगडंडी-टेढी मेढ़ी। ऐसे रास्तों से गुजरते हम भी है पर ठहरकर कभी देखें-कोई अद्भुत दृष्य कैमरा रच ही देगा! सिद्धार्थ सहाय के इस छायाचित्र में कुछ ऐसा ही था। इसीता गोधा ने आमेर किले पर पड़ती धूप की सुनहरी आभा को सदा के लिए जीवंत किया। मानसी पारीक ने परकोटा देखा और उससे उपजी संकरी पगडंडी सरीखी को दृष्य में अंवेर दिया। अर्णव गोदारा ने बंदर की उछाल के दृष्य को पकड़ा तो खुषी ने पेड़ों के झुरमुट मंे उगती धूप को कालजयी किया। अंष बिरमानी, शुभम जैन, आषीष फोफलिया ने भी छायांकन में निहित कला को गहरे से अपने चित्रों में जिया। यही तो है सौंदर्यबोध। तकनीक से अद्भुत, तो किया जा सकता है पर सौन्दर्य की संवेदना को तो वह आंख ही पकड़ती है जिसमें दृष्य से उपजे भाव कुछ रचने के लिए प्रेरित करते हैं। क्या ही अच्छा हो, षिक्षण संस्थाओं में छायांकन कला प्रदर्षनी के साथ ही इस कला पर विमर्ष से जुड़े संवाद की राह भी खुले।

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