Sunday, August 14, 2016

खुली किताब : यादवेन्द्र शर्मा 'चन्द्र'


यादवेंद्र शर्मा चंद्र से संवाद (1989)

यादवेन्द्र शर्मा 'चन्द्र' राजस्थान के ऐसे साहित्यकार थे जिनके जीवन का कर्म और मर्म लिखना और बस लिखना ही था। लिखते बहुत से लोग हैं परन्तु चन्द्रजी जैसे विरले हैं, जिन्होंने अपना सारा जीवन या यूं कहें आजीविका मात्र लेखन के सहारे ही गुजारी। हिंदी और राजस्थानी में उपन्यास, कहानी, कविता, नाटक, संस्मरण आदि सभी विधाओं में उन्होंने विपुल सृजन किया। 

उनके सान्निध्य और दिए गए स्नेह की बहुत सी यादें हैं। याद करूंगा तो न जाने कितने पन्ने भर जाएंगे! यह १९८९ की बात है, जब उनका एक बड़ा साक्षात्कार मेंने किया और वह प्रकाशन विभाग की पत्रिका 'आजकल' में छपा था। बाद में उनके साथ 'राजस्थानी की कालजयी कहानियां' के संपादन का सुयोग भी मिला। नई धारा, इण्डिया टूडे, नवभारत टाइम्स, राजस्थान पत्रिका, नवज्योति आदि के लिए निरंतर मैंने उनके साक्षात्कार किए। 'जागती जोत' के लिए मित्र नीरज दईया के आग्रह पर कभी मैंने राजस्थानी में उनका बड़ा साक्षात्कार किया। इतना कुछ उनके बारे में सहेजा, संजोया है कि पूरी एक किताब प्रकाशित हो जाए। याद पड़ता है, उनकी साक्षात्कार की एक किताब का शीर्षक ही है, 'खुली किताब'। मुझे लगता है, चन्द्रजी भी सबके लिए खुली किताब थे।
उनसे पहली भेंट का किस्सा भी उनके बड़पन्न को बंया करने वाला है। याद है, तब कॉलेज में पढ़ता था और 'ब्लिट्ज' के लिए पत्रकारिता करता था। उनके उपन्यास की समीक्षा मैंने इसमें एक दफा की। शायद वह उनका लिखा राजस्थानी परिवेश का'रक्तकथा' उपन्यास ही था। समीक्षा में अपने होने को गहरे से जताते मैंने अनावश्यक अश्लील शब्दों, कथा विस्तार और शब्दावली आदि जुमलों से जैसे उसकी भरपूर खिंचाई की थी। सच में तो यह आसमान पर पत्थर फेंकने जैसा ही था। तय था, चन्द्रजी कभी मिलेंगे तो खबर लेंगे पर हुआ बिल्कुल उलट। एक रोज़ चन्द्रजी घर के बाहर से आवाज लगा रहे थे, 'यह राजेशजी का ही घर है?' मैं लपककर पहुंचा। वह शायद चेहरे से मुझे नहीं जानते थे पर जब मिले तो तुरंत कहा, 'तुम्हारे यहां चाय पीने आया हूं।' बातों ही बातों में वह मेरी लिखी समीक्षा पर आ गए परन्तु स्वर बिल्कुल संयत। बोले, 'अच्छी लिखी है पर अतिशयोक्ति से की है तुमने समीक्षा।' मैं जानता था, वह सही कह रहे हैं परन्तु बाद में उन्होंने इस बात को भी हवा में उड़ा दिया। यह तो बहुत बाद में पता चला सम्पादक उनके निकट के मित्र थे। चाहते तो वह सदा के लिए मेरा लिखना "ब्लिट्ज" से छुड़वा सकते थे। पर यह उनका बड़पन्न था कि उन्होंने संपादक श्री नौटियालजी से मेरी तारीफ की।....ऐसे बहुत से और भी किस्से हैं, जो उनकी उदात्तता के हैं। वह साफ मन के थे। बहुत प्यार देने वाले। 
जब भी बीकानेर जाता हूं, लौटता हूं तो चन्द्रजी के नहीं होने के खालीपन को लेकर ही लौटता हूं। इतना प्यार अब कौन दे? और शायद उन्होंने बिगाड़ भी दिया था कि जितना नेह वह देते थे, उतने से कम में अब पार नहीं पड़ती। नमन, चन्द्रजी। नमन!

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