Tuesday, August 30, 2016

छायाचित्रों की कलाधर्मिता में रचा प्रकृति का रंगाकाश


कलाएं मन को रंजित करती है। शायद इसलिए कि वे हमारी संवेदना को चक्षु देती है। यथार्थ को सर्वथा नई दीठ से देने का एक प्रकार से संस्कार भी कलाएं ही देती है। छायांकन की ही बात करें। ब्रितानी सैरा चित्रकार टर्नर ने कैमरे के आविष्कार के समय कहा था कि फोटोग्राफी के आगमन का अर्थ है, कला का अंत। पर कला स्वरूपों की सृजन प्रक्रिया का आज छायांकन प्रमुख आधार है। न्यु मीडिया का तो प्रमुख आधार ही आज फोटोग्राफी ही है।
मुझे लगता है, छायांकन दृष्य संवेदना में अनुभव का सर्वथा नवीन भव निर्मित करती है। संवेदना से उपजी यह वह सर्जना है जिसमें देखने का हमारा ढंग बदल जाता है। दृष्य में निहित बाहरी ही नहीं बल्कि आंतरिक सौन्दर्य की भी दीठ इसमें निहित है। अभी बहुत समय नहीं हुआ, जवाहर कला केन्द्र में छायाकार महेश स्वामी की छायाचित्र कला की एक सर्वथा भिन्न दृष्टि की प्रदर्षनी  का आस्वाद किया। लगा, दृष्य के साफ-सुथरेपन के साथ प्रकृति में घुले रंगो का उन्होंने बजरिए तकनीक सर्वथा नया आकाष रचा। कोई कह रहा था, खींचे गए छायाचित्रों से छेड़-छाड़ कर छायाकार ने दृष्यों को अपना निजत्व देते अधिक सुन्दर बनाने का प्रयास किया है। पर इसमें बुरा भी क्या है? तकनीक साधन है, साध्य नहीं। 
कैमरे से लिए गए छायाचित्रों को कलाकृतियो मेें रूपान्तरित करते यदि प्रयोगधर्मिता का ताना-बाना बुना जाए तो इसमें बुरा भी क्या है। और फिर कैमरे से लिए गए चित्रों में यदि हूबहू जो कुछ दिख रहा है वही दर्षकों का सच बनता है तो इसमे ंफिर कला क्या है? कला तो संवेदना की वह आंख ही है जिसमें छायाकार अपने तई दृष्यों को अंवेरता, उसे अपनी सूक्ष्म सूझ से रूपान्तरित करता है। एक समय में पिकासो, मातीस, सेजां, साल्वो आदि ने फोटोग्राफी से निरंतर प्रभावित होते स्वयं की कला के संप्रेषण माध्यम में इसका उपयोग किया भी तो है। और फिर यह भी तो सच है, छायाकंन मे ंयदि यथार्थ का ही अंकन होता है तो उसमे फिर कला कहां है? छायाकार यदि कलाकार है तो वह दृष्य में निहित उस सौन्दर्य से भी हमारा साक्षात् करा देता है, जो नंगी आंखों से चाहकर भी हम देख नहीं पाते। इसमें यदि प्रयोगधर्मिता का सहारा कलाकार लेता है तो यह तो जड़त्व को तोड़ने की सृजनधर्मिता ही हुई ना। इसी की तो कला में दरकार है।
छायाकार महेश स्वामी 
बहरहाल, महेष स्वामी की छायाचित्र प्रदर्षनी ‘दर्पण’ पर लौटता हूं। इस बार के उनके छायाचित्र देखने के हमारे चले आ रहे ढंग की लीक को तोड़ने वाले हैं। कहूं, एक खास तरह की एकांतिका उनके इस बार के छायाचित्रों में व्याप्त है। लॉन में पड़ी कुर्सियॉं, साईकिल और कूलर, गमले और यहां तक की दरवाजों तक के अकेलेपन के बावजूद उनमें रमी फूल-पत्तियों की गुनगुनाहट की सूक्ष्म अंर्तदृष्टि में इन छायाचित्रों में समय के अवकाष को गहरे से पकड़ा गया है। यह भी महज संयोग नहीं है कि प्रयोगधर्मिता लिए उनके छायाचित्रों में पेड़ों के हरेपन के बहाने दैनिन्दिनी उपयोग की वस्तुओं की छवियों को एक खास तरह का अर्थ दिया गया है। यह सही है, तकनीक के प्रयोग से महेष ने अपने इन छायाचित्रों को कैनवस पर सृजित कलाकृतियों सरीखा रूपाकार दिया है परन्तु महत्वपूर्ण इस सृजन का वह पक्ष है कि जिसमें प्रकृति से जुड़ी उनकी संवेदना को पंख लगे हैं।
उनके छायाचित्रों में गमलों में उगे पौधों, फूलों में निहित सौन्दर्य को असल में रूपक की तरह इस्तेमाल किया गया है। इसलिए कि कैमरे से जो कुछ आंख ने देखा, वही भर यहां सत्य नहीं है-उससे परे वह संवेदना भी है जिसमें प्रकृति को अपने तई गुना और बुना जाता है। छायांकन-कला की यह वह नवीन प्रयोगधर्मिता है जिसमें छाया-प्रकाष की कलात्मक सूझ के साथ रंग और रूप के मनः स्केच एक तरह से उकेरे गए हैं। मसलन पेड़ों से छाई हरियाली के हरेपन को, पतझड़ के पीलेपन को और सूर्ख गुलाब और दूसरे फूलों के रंगो को चुराते महेष ने अपने कैमरे की छवि की दृष्यात्मकता को सर्वथा नया आयाम दिया है। यह है तभी तो उनकी कैमरे से उकेरी छवियां यहां रंग-रूप का नया आकाष रचती देखने वालों में बसती है।
उनकी छायाचित्र प्रदर्षनी में प्रकृति एक तरह से वह दर्पण ही तो है जिसमें जीवन से जुड़े बिम्ब झिलमिलाते हैं। इनमें उभरे हल्के हरे, नीले, लाल, भूरे, काले रंगों का और रूप का अद्भुत उजास है। यह अनायास ही नहीं है कि उनकी इस श्रृंखला के छायाचित्रों को देखते हुए औचक वॉन गॉग की कलाकृतियों की याद आती है तो पिकासो के कला प्रयोग भी ज़हन में कौंधते हैं। कुछ इस तरह से कि प्रदर्षनी में देखने के बाद भी उनकी छाया-छवियां मन में सदा के लिए बसी रहती है। मुझे लगता है, महेष ने अपने इन छायाचित्रो ंमें अनुभूतियों को स्केचेज की अपनी प्रयोगधर्मिता में इस कदर सरल, सहज कैमरे से रूपान्तरित किया गया है कि कोने में पड़ी साईकिल, कार, सन्नाटे में पसरी कोई बेल, करीने से रखे हुए गमलों का लाल रंग और पक्षियों के लिए रखा पानी सदा के लिए हममें बस जाता है। इस छायाचित्र श्रृंखला का वह फोटोग्राफ तो अद्भुत है जिसमें खाली पड़ी कुर्सियों की के मौन को पीले उगे फूल स्वर दे रहे हैं। ऐसे ही एक फोटोग्राफ में बेल में उगे फूल जैसे देखने वाले से संवाद करते हैं तो दूसरे एक में हरे पत्ते और बारिष से नहाया आंगन जैसे मुस्करा रहा है। उड़ते पक्षियों की परछाई, एक स्थान पर एकत्र हरे तोते, पानी का रखा पात्र पर उसमें झांकती पेड़ की शाखाएं आदि की बिम्ब-प्रतीक व्यंजना के इन फोटोग्राफ्स में छायांकन कला के जरिए महेष स्वामी ने जैसे प्रकृति का रंगाकाष रचा है। जो कुछ दिख रहा है, वही नहीं बल्कि उससे भी अधिक मन की अनुभूतियों को सहेजती, छाया-कला प्रदर्षनी के फोटोग्राफ दरअसल मौन में प्रकृति की गुनगुनाट सुनाती कलाकृतियां ही तो है।

2 comments:

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

राजेश भाई, महेश जी की प्रदर्शनी की यह समीक्षा बहुत उम्दा है. अगर अन्यथा न लिया जाए तो कहूं कि तस्वीरों से भी बढ़कर है उनकी व्याख्या. बधाई! लेकिन यह नहीं समझ पा रहा हूं कि आपने इसे राष्ट्रदूत सम्पादकीय के रूप में क्यों छपवा लिया? कला समीक्षा के लिए वह स्पेस क़तई उपयुक्त नहीं है. मेरे खयाल से.

kala-waak.blogspot.in said...

आदरणीय अग्रवाल जी
आपने प्रदर्शनी पर मेरे लिखे को उम्दा कहा, आभारी हूं। तस्वीरों ने उद्वेलित किया, तभी लिखा जा सका।
बहरहाल, 'आपने इसे राष्ट्रदूत के सम्पादकीय के रूप में क्यों छपवा लिया...' से मुझे घोर आपत्ति है। संपादकीय ऐसे लिखों के लिए उपयुक्त नहीं है, क्यों? कलाओं की दीठ संपादकीय नहीं हो सकती? कलाओं में नया कुछ प्रयोगधर्मिता का होता है, वह विचार का विषय नहीं है? सम्पादकीय क्या विसंगतियों, विडम्बनाओं और घटनाक्रमों का विश्लेषण ही होता है! आपकी आपत्ति से तो कुछ ऐसा ही प्रतीत होता है।
आपके तो पाठकीय सरोकार अज्ञेयजी, विद्यानिवास मिश्र, राजेन्द्र माथुर बल्कि प्रभाष जोशी, मृणाल पाण्डे और भी दूसरे सुधि सम्पादकों के सम्पादकीय पढ़ने से रहा ही है। अभी कुछ दिन पहले ही एक पुस्तक में प्रकाशित सतीश गुजराल की प्रयोगधर्मिता से जुड़ी एक कला प्रदर्शनी का अज्ञेयजी का नभाटा का सम्पादकीय पढ़ा बल्कि अमर उजाला, प्रभात खबर, लोकमत समाचार तो बहुतेरी बार कलाओं पर इस तरह के सम्पादकीय प्रकाशित करता ही है।
'राष्ट्रदूत' वैचारिक उन्मेश का समाचारपत्र है। लीक से हटकर सामग्री प्रकाशित करने वाला। अगर उसमें कलाओं को सम्पादकीय में जगह मिलती है तो मुझे नहीं लगता, आप जैसे प्रबुद्ध बल्कि कलाओं के रसिक को इस तरह की आपत्ति करनी चाहिए।