Sunday, August 7, 2016

मौन हो गया, कलाओं के अंतःसंबंधों का वह रंगाकाश

कालिदास ने रंगमंच को चाक्षुष यज्ञ की संज्ञा दी है और भरतमूनि ने इसे सामुदायिक अनुष्ठान बताया है। मुझे लगता है, कावलम नारायण पणिक्कर के नाटक इन कथनों को अपने तई जीवंतता प्रदान करते हममें बसते है। भावों की समग्रता में उनके नाटक रागबन्ध है। रागबन्ध माने रस के रूप में भावों की सुमधुर व्यंजना वहां है। उनकी नाटय प्रस्तुतियों पर विचारता हूं तो सहज कलाओं के अंतःसंबंधों के दृश्य माधुर्य को भी वहां पाता रहा हूं। इसलिए कि वहां नृत्य, भावभिनय है, गान और चित्रमय दीठ का सांगोपांग है। 
बहरहाल, भारतीय रंगमंच में पणिक्करजी का नहीं होना सदैव खलता रहेगा। उनके देहांत की सूचना जब मिली, तब श्रीनगर में था। विष्वास नहीं हुआ। भारतीय रंगकर्म में किए उनके प्रयोगों में ही मन बसा रहा। यह सच है, उनके नाटक कलाओं के अंतःसंबंधों की एक तरह से व्याख्या ही है। उनके कुछेक नाटकों का आस्वाद तो पहले भी किया था परन्तु जयपुर के रवीन्द्र रंगंमंच पर वर्ष 2013 में ‘रंग पणिक्कर समारोह’ के अन्तर्गत मंचित उनके नाटकों में मन अभी भी रचा-बसा है। कोई सप्ताह भर तक पणिक्कर जी का प्रवास भी इस दौरान जयपुर ही रहा, सो एक बार निरंतर दो घंटे और फिर टुकडों-टुकडों में नाटय और कलाओं पर महती संवाद का सुयोग भी हुआ। नाटय प्रदर्शन से पहले वह कलाकारों से संवाद करते, मंच के पार्श्व परिवेश में भी क्या कुछ पहले से नया हो सकता है, इसके लिए भी वह अपने तई जुटे रहते। तभी गौर किया, प्रकाश, ध्वनि और तमाम दूसरे नाटय उपादानों से भी वह निरंतर अपने को जोड़े रखते। मुझे लगता है, यह था तभी तो उनके निर्देशित नाटक रंगमंच की परम्परा के जडत्व से मुक्त होते संस्कृति के लोक सरोकार लिए जहन में सदा के लिए दर्षकों के मन में बसते रहे हैं। 
कावलम नारायण पणिक्कर छाया-चित्र  : महेश स्वामी
कावलम नारायण पणिक्कर निर्देशित नाटकों की अर्थ अभिव्यंजना ही नही उनमें निहित परिवेश भी समय की अधुनातन संवेदना से जुडा देखने वालो का मोहता रहा है। साधारीकरण में वह सौन्दर्य की वस्तु सत्ता से साक्षात कराते रहे है। उनका एक नाटक है, अवन वन कडिम्बा। सुप्रसिद्ध फिल्मकार जी. अरविन्दन ने इसे कभी उनके सहयोग से मंचित किया था। खुले रंगमंच पर वृक्षों की पृष्ठभूमि पर जब यह हुआ तो भारतीय रंगकर्म के लिए यह सर्वथा नवीन पहल थी। जयपुर में हुए संवाद में उन्होने इसका उल्लेख भी किया  और कहा भी कि प्रकृति से जुडी चीजों की मंच पर प्रयोग की सीख उन्हे जी. अरविन्दन से ही मिली। रवीन्द्र रंगमंच पर मालविकाग्निमित्र के मंचन में अशोक वृक्ष का जो चितराम उनके निर्देशन में हुआ, वह भी अदभूत था। अशोक वृक्ष, उसकी पत्तियां, शाखाओं के विरल दृश्य रूपान्तरण अभी भी जहन में बसे है। मुझे लगता है, मंचीय परिवेश की जीवन्तता की उनकी अनूठी सूझ है। नाटयकुलम की और से रंग पणिक्क्र समारोह में मध्यमव्यायोम कर्णभारम मालविकाग्निमित्र उत्तरामचरितम, थैया थैयम कलिवेशम नाटकों का मंचन हुआ। इनका आस्वाद करते लगा, वह भारत के विरल नाट्य निर्देशक है। ऐसे जो संस्कृत और दूसरे परम्परागत नाटकों के रूप में विधान से किसी प्रकार की छेडछाड नही करते। परन्तु उन्हें हुबहु वैसा ही नही रखकर उसमें अपनी सूक्ष्म दीठ से समय के संदर्भ पिरोते रहे है। बतौर नाटय निर्देशक रंगकर्म में उन्होने जोखिम भरे प्रयोग भी कम नही किए है। मसलन उनके बहुतेरे नाटकों में पात्र के साथ उसके छाया पात्र से दर्शकों का बार बार सामना होता हे। अंतर्मन संवेदनाओं, मन मंें घुमडते विचारों, खुद के खुद से होने वाले प्रश्नों और द्वन्द का मंचन आसान नही है। बल्कि कहे, इन सबके नाटय रूपान्तरण की जोखिम नाटक में कोई ले भी नही सकता। परन्तु यह जोखिम ही पणिक्कर जी के नाटकों की बडी विशेषता है। उनके नाटको में नह केवल  इस जोखिम को उठाया गया है बल्कि चरित्र का आत्म संवाद गहरे से अभिव्यंजित भी हुआ है।
छाया-चित्र महेश स्वामी
पणिक्कर जी के नाटकों में संकेतो के जरिये संवेदना का संम्प्रेषण तो है साथ ही नाटय दृश्य में पात्रों की भंगिमाओं से गढे गये अदृश्य का भी भावनात्मक रूपान्तरण है। इसीलिए उनके नाटक देखते हुए हमारे भीतर घटने लगते है।  भास रचित ‘मध्यम व्यायोम’ को ही ले। घटोत्कच जब वहां पहाड उठाने का अभिनय करता है तो लगता है, सच में उसने विशाल काय पहाड को अपनी भुजाओं में उठा लिया है। भले ही पहाड़ वहां विचार है। परन्तु पहाड़ उठाए पात्र को देखने लगता है, वह हमारे भीतर घटने लगा है। ऐसे ही इस नाटक में घटोत्कच और हिडिम्बा के उनके रण प्रयोगो में लोक अनुष्ठान्न है। भवभूति रचित ‘उत्तर रामचरित्रम’ की उनकी नाटय प्रस्तुति भी विरल है। यह राम के राज्य या अभिषेक के बाद सीता निर्वसन और फिर से मिलन की कथा है। रामायण की मूल कथा दुखान्त है। परन्तु भवभूति  की सुखान्त। पणिक्करजी के रंग निर्देशन में नाटक और नाटक के भीतर एक और नाटक जीवंत हो जैसे देखने वालो से संवाद करता है। 
बहरहाल, पणिक्कर जी ने अपने तई देष में नवीन रंग संस्कृति का विकास किया। ऐसी नवीन संस्कृति का जिसमे रंग कर्म संस्कृति से जुडी हमारी एक अनिवार्यता लगता है। नाट्यकर्म पर उनसे दीर्घ संवाद में नाटय शास्त्र की प्रासंगिकता के साथ ही आधुनिक रंगकर्म पर ढेरो बाते हुई है। वह नहीं है पर नाट्य में लोकधर्मिता के प्रयोगो पर और भारतीय रंगकर्म की स्थापनाओं पर उनसे हुए संवाद मन को निरंतर मथता रहा है। अनुभव संचित रंगाकाश में कलाओं के अंतःसंबंधों का अदभूत उजास संवाद में उनसे मिला। भारतीय रंगकर्म की चर्चा जब भी की जाएगी, पणिक्करजी की रंगधर्मिता के समय को भी याद किया जाएगा।

2 comments:

संत समीर said...

ब्लॉग तक पहुँचाने के लिए धन्यवाद। बढ़िया आलेख हैं।

kala-waak.blogspot.in said...

आभार! आप यहां आये और पढ़ा.