Saturday, August 13, 2016

जब कलाएं पास आती है...'



कलाएं समय, समाज और परिवेश की एक तरह से सुघड़ व्यंजना है। सृजन के स्त्रोतों पर जाएंगे तो संस्कृति, परम्परा, इतिहास को वहां ध्वनित पाएंगे। अतीत और वर्तमान वहां साथ-साथ झिलमिलाता है। मुझे लगता है, बहुत से स्तरों पर कलाएं अतीत के जरिए भविष्य का किवाड़ भी खोलती हैं। कलाओं में अतीत यदि ध्वनित होता है तो इसका कारण शायद यह भी है कि अतीत का जो भी सुदंर है-मनभावन है, वह बचाया जा सके। अतीत से जुड़ी वस्तुएं सीढ़ी है-कला के सौन्दर्य तक पहुंचने की। इस सीढ़ी के जरिए ही पाई जा सकती है, नव्यतम दीठ। सोचता हूं, अपने अंतरतम तक पहुंचने का मार्ग भी तो है अतीत! 
विनय शर्मा मूलतः चित्रकार है परन्तु इधर अपनी कला में अतीत को सर्वथा नवीन दीठ से संजोया है। उनका कैनवस संगीत से जुड़ गया है, नृत्य की थिरकन उसमें समा गयी है और नाट्य की भंगिमाओं से उनकी कलाकृतियां जैसे दृष्य के अद्भुत आख्यान हमारे समक्ष रखती है। उनके स्टूडियो में बीते हुए कल को जीवंत करता अतीत ठौड़-ठौड़ जैसे बिखरा पड़ा है। पुराने जमाने की रोजमर्रा से जुड़ी भांत-भांत की चीजें उनकी कला का हिस्सा हैं। पुराने जमाने का ग्रामोफोन, टाईपराईटर, बड़ी सी दवात, झूले, झाड़ फानुस, ईरानी आईना, सूत कातते चरखे और गुजरे जमाने की याद दिलाते ढेर सारे रेडियो का अद्भुत संग्रह उन्होंने पिछले कुछ वर्षों के दौरान किया है। उनकी कलादीर्घा (स्टूतडियो) में प्रवेष करेंगे तो पाएंगे, एक कोने में बहुत सारे पुराने टेलीफोन यंत्र हैं। पुराना टेलीफोन बूथ और उसके बाहर लटकते ढेर सारे अलग-अलग समय के दूरभाष यंत्र। यही नहीं, बीते कल की फिल्मों के पोस्टर! अतीत से जुड़े ढेरों दस्तावेज। हर ओर, हर छोर। और हां, इन सबसे ही यहां अतीत जैसे रागायमान है। भले पुराने जमाने की चीजें यहां स्थिर हैं परन्तु उनमें लययुक्त गतियां हैं। गुम हुई आवाजें हैं और हैं स्मृतियां। 
चीजें स्थिर रहें, मौन रहें तो उदासी, सन्नाटा पसरता है पर कलाकर्म से उनमें ध्वनित होने की अनुभूतियां पैदा की जाए वह राग बन जाता है। ‘अतीत राग’। विनय शर्मा की स्टूडियो इस दीठ से मुझे ‘अतीत राग’ ही लगता है। इसलिए कि अतीत को अपनी कला में उनने गहरे से संजोया है। बीते हुए कल को अपने तई संवारते कैनवस पर ही नहीं संस्थापन की अपनी सूझ में भी उसे गहरे से जीया है। कैनवस पर रंग-रेखाओं के संग का पाष्र्व कुछ और नहीं पुरानी बहियां, स्टाम्प पेपर, जन्मपत्रियां, पुराने भोजपत्र और तमाम वह दस्तावेज जो कल की बात हो चुके हैं। सोचता हूं, अतीत से यह कैसा अनुराग है। नया काम पर अतीत से जुड़ा। कला की आधुनिक दीठ पर परम्परा का सांगोपांग मेल। संस्थापन की विनय की नव्यतम प्रस्तुति में चित्रकला के साथ संगीत, नृत्य, नाट्य में ध्वनित होते इतिहास में परम्परा का राग है तो आधुनिकता का अनुराग भी।
हाल ही में जयपुर आर्ट समिट में इस बार विनय शर्मा का संस्थापन विषेष आकर्षण का केन्द्र रहा। जयपुर के जवाहर कला केन्द्र में एक कोना विनय के संस्थापन का था जिसमें अतीत से जुड़ी चीजों का विनय का कला संग्रह ही नहीं था बल्कि वहां अतीत दृष्य के साथ ध्वनित भी हो रहा था। वह सांझ सचमुच खास थी। विनय ने अपनी नव्यतम संस्थापन प्रस्तुति के लिए आमंत्रित किया था। पहुंचा तो देखा कलर पेलेट लिए ब्रष से ईजल पर रखे कुछ बनाते विनय दिख रहा था पर बहुत प्रयास के बाद भी कुछ शायद बन नहीं पा रहा था। कुछ न बना पा सकने की झुंझलाहट भी उसके चेहरे पर स्पष्ट दिख रही थी। औचक, विनय ने कैनवस पर ब्रष से कुछ बनाया पर फिर शायद उसे लगा, जो कुद वह सृजित करना चाहता है कैनवस उसके लिए पर्याप्त नहीं है। हमने देखा, अपनी पुरानी चीजों में से वह कुछ तलाष करने लगा। अपनी संग्रहित अतीत से जुड़ी वस्तुओं में से एक पुरानी लालटेन को अंततः उसने ढूंढ निकाला। लालटेन को रोषन कर वह फिर से ईजल के पास आया। रोषनी ईजल पर रखे कैनवस पर पड़ती दिखाई दी पर उसने कैनवस पर कुछ उकेरने की बजाय उसे हटा दिया। लालटेन की रोषनी ईजल पर फिर से थी, उजास में दिखाई दी कैनवस के पीछे छीपी वह मूर्तिनुमा मानवाकृति जो अब तक स्थिर, खामोष थी। 
लालटेन की रोषनी जैसे ही मानवाकृति पर पड़ी जैसे अब तक सोई उस मूर्ति में जान आई। रोषनी से पूरी तरह नहाते रंगपूति मानवीय आकृति जैसे जीवंत हो उठी। विनय ने कलर पेलेट से रंग उठाए और ब्रष से उस आकृति में और कुछ रंग पोत दिए। गणेष की सूंड। गजानन जैसे रंग-रेखाओं में जी उठे। गणेष वंदना के ध्वनित संगीत पर तभी नृत्यांगना झंकृति जैन की नृत्य भंगिमाएं भी जैसे परिवेष को जीवंत करने लगी। पुरानी चीजों के संग्रह में एक ओर नटेष के अभिनय में रंग-रेखाओं पूते अषोक बांठिया थे तो दूसरी ओर 51 लघु कैनवस पर उकेरी गणेष की भांत-भांत की मुद्राओं की विनय की कलाकृतियां थी। चित्रकला, नृत्य, संगीत और अभिनय का यह अद्भुत मेल था। इधर झंकृति का नृत्य थमा कि छत से लटके पुराने टेलिफोन के चोगों की घंटियां एक साथ बज उठी। विनय की कलाकृति बने अषोक बांठिया हैलो....हैलो...हैलो करते हैरान-परेषान फोन सुनते भांत-भांत के टेलिफोन यंत्रों की ओर लपकते हैं। उधर ध्वनियों का आकाष है। एक टेलिफोन पर प्रसन्न्ता का समाचार दिया जा रहा है तो दूसरे किसी में शोक समाचार का रूदन है, तीसरे किसी में प्यार और रोमांष की बातें हैं तो चैथे किसी में दैनिन्दिनी जीवन से जुड़ी कोई बात।...तब-जब मोबाईल नहीं थे, टेलिफोननुमा यंत्र जीवन को ऐसे ही तो स्पन्दित किया करता था। 
प्रख्यात रंगकर्मी, निर्देशक अशोक बांठिया 
नाटक जारी आहे! एक टेलिफोन पर गाना बनजे लगा है, ‘मेरे पिया गए रंगून, वहां से किया है टेलिफोन, तुम्हारी याद सताती है...।’ यह टेलिफोन में गूंजरित रेडियो ध्वनि है। विनय के एकत्र रेडियो सैट जैसे इसी की याद दिलाते हैं। गीत पूरा होता है कि टन...टन...टन के घंटे बजते हैं। अभिनय कर रहे अषोक बांठिया हैरान होकर इधर-उधर देखते हैं। रंगपूती विनय की कलाकृति की बैचेनी साफ दिखाई देती है। इधर-उधर अतीत को जीवंत करती वस्तुओं पर लाईट घूमती है। औचक बड़ी सी दिवार घड़ी पर नजर जाती है। जीवित कलाकृति गौर से इस घड़ी को देखती है। घड़ी में रात के 9 बजने के साथ ही टन-टन-टन करते नौ घंटे भी बज जाते हैं। टिक...टिक...टिक करती एक नहीं अनेक घडि़यां दिखती है। अलग-अलग रूपाकारों में। पुराना समय जैसे इन घडि़यों में जीवित हो उठा है कि फिर से रेडियो से गीत बजता है, ‘सुनो गजर क्या गाए...समय गुजरता जाए।’ विनय की कलाकृति (अषोक बांठिया) इस गीत पर थिरकने लगती है। भावाभिनय  की अद्भुत व्यंजना! बांठिया के अभिनय में बीता हुआ समय जैसे ध्वनित होते देखने वालों को भी अतीत के किसी गलियारे में ले जाता है। लगता है, देखने वाले टाईम मषीन में बैठ गये हैं, समय पीछे लौट गया है। ...धीरे...धीरे कलाकृति पुराने जमाने की संग्रहित चीजों में जैसे अपनी ही तलाष करती है कि खर...खर की आवाज से उसका ध्यान भंग होता है। फिर से हैरानी...विस्मय के भाव कलाकृति के चेहरे पर दिखाई देते हैं। वह इधर-उधर नजर दौड़ाती है कि नजर पुराने जमाने के संग्रहित रेडियो सैटों पर पड़ जाती है। रेडियो के वाॅलियम और बैंड को मिलाने पर आकाषवाणी के समाचार सुनाई देने लगते हैं। रेडियो की आवाज समाचारों से होती हुई बहुत सी और रेडियो प्रस्तुतियां सुनाती है। इन प्रस्तुतियों में आजादी की लड़ाई के समाचार हैं, विचार हैं और लोकतांत्रिक राष्ट्र से जुड़े आख्यान-व्याख्यान की पुरानी रिकाॅर्ड ध्वनियां दर ध्वनियां हैं। इन ध्वनियां पर कलाकृति बने अषोक बांठिया का सहज, आवाज में निहित भावों को जीवंत करता अभिनय इस कदर प्रभावी है कि आंखे उनकी भंगिंमाओं पर ही केन्द्रित हो जाती है। ...पुराने जमाने के संग्रहित रेडियो की आवाजें धीरे-धीरे शांत होती है कि लाईट फिर से पुराने झाड़फानुस, टाईपराईटर, दवात, कलमों और दूसरी अतीत से जुड़ी जीचों पर केन्द्रित हो जाती है। इन्हें ही विनय ने इधर अपने कलाकर्म का माध्यम बनाया है। कलाकृति बने अषोक बांठिया इन चीजों में अपने होने की तलाष करते इधर-उधर हो रहे हैं कि फिर से कलाकार विनय पाष्र्व से लालटेन लिए आ जाते हैं। कलाकृति लालटेन के उजास को पाते ही फिर से ईजल की ओर लौटती उसपर कैनवस बनती थिर हो जाती है। शायद यह जताते हुए कि हरेक कला दूसरी कला से मिलकर ही पूर्ण होती है।
बहरहाल, विनय शर्मा के कलाकर्म पर विदूषी और अजय जैन की इस आधा घंटे की भावपूर्ण प्रस्तुति में कलाओं के अन्तःसबंधो को जैसे मुझ अंकिंचन ने गहरे से जीया। इस प्रस्तुति को देखकर कहीं पढ़ा हुआ ज्याॅं सेराॅ का वह कथन भी जेहन में फिर से कौंधता है जिसमें वह कहते हैं कि शब्दों से अगर चित्रों का अर्थ बताया जा सकता तो फिर चित्रकार को चित्र आंकने की क्या आवष्यकता होती। चित्रकला ही नहीं तमाम कलाएं अनुभव का अनूठा लिए ही तो होती है। कलाएं इसीलिए शरण्य है कि वहां कोई एक अर्थ नहीं अर्थ की अनंत संभावनाओं का आकाष होता है। बगैर उनमें रमे-बसे इस आकाष की थाह कहां कोई पा सकता है!
मौलिक दीठ के विनय के इस ड्रामा-इंस्टालेषन में रंग-रेखाओं को मानव शरीर पर जीवंत करते अतीत को वर्तमान से जोड़कर देखने की गहरी सूझ है। नाट्य अभिनेता, निर्देषक अषोक बांठिया के साथ मिलकर विनय ने संस्थापन के अपने इस कार्य को बखूबी अंजाम दिया है। 
अशोक बांठिया और  विनय शर्मा  
बहरहाल, कलाओं की वैदिक कालीन संज्ञा षिल्प है। षिल्प माने नृत्य, संगीत, चित्रकला, वास्तुकला, स्थापत्य और यहां तक कि हस्तकलाएं तक। विष्णुधमोत्तरपुराण का तीसरा खंड चित्रसूत्र है पर वहां चित्रकला ही नहीं है, प्रतिमाशास्त्र और मंदिर वास्तु पर भी विषद् विवरण है। नृत्य और संगीत के साथ नाट्य की मुद्राओं, भाव एवं रस आदि सहित समस्त कलाओं के पारस्परिक अंतरसंबंधों को अंवेरते यह बताया गया है कि एक कला को समझे बगैर दूसरी कला को समझा नहीं जा सकता। वैसे भी संगीत का उद्देश्य स्वरों की भाव सृष्टि से होता है और चित्र का उसमें निहित रूप-रेखाओं से। वास्तु या मूर्ति में पत्थर, काष्ठ या धातुओं में उसी रूप की प्रतिष्ठा होती है। और फिर वास्तुकला की तो सागीतिक भाषा तक बताई गयी है। इसीलिए कहें तमाम हमारी कलाएं कारू (उपयोगी) भी है और चारू (कलात्मक) भी हैं। सभी कलाओ को एक समान मानने का उद्देश्य सत्य का संधान तथा मानव जीवन को सौंदर्य एवं माधूर्य से परिपूर्ण बनाना ही तो रहा है। इस दीठ से विनय शर्मा का संस्थापन ‘अतीत राग’ मन को मथता है,  कलाओं के अन्तःसंबंधों की गवाही देता हुआ।                         

1 comment:

Unknown said...

डॉ. राजेश कुमार व्यास जी का यह लेख कलाओं के अंतरसंबंधों को बयां करता रोचक वृत्तांत है |दृश्य ,संगीत एवम नृत्य की त्रिवेणी को जिस तरह डॉ. व्यास ने वर्णन किया है इससे हमारी रचनात्मकता मैं और चढाव आएगा |डॉ. व्यास का दिया गया स्टूडियो का नाम 'अतीत राग' अब मेरे दृश्यों के साथ गुनगुनाने लगा है , मानों
अब मिला है मेरे स्टूडियो को सही नाम | स्टूडियो मैं रखा अतीत भी संभवत आज प्रसन्न हो रहा होगा |बहुत बहुत आभार डॉ. राजेश जी |संगना एवम प्रयाग जी का भी आभार | हमारे परम मित्र श्री अशोक बांठिया जी ,श्री अजय जैन जी ,श्री ऋतुराज देवांग ,श्रीमती विदु जैन एवम झंकृति जैन का भी धन्यवाद