Saturday, February 6, 2010

२९ जनवरी २०१० को प्रकाशित
विचार स्वरूप की संगीत दृष्टिपद्म पुरस्कारों की इस बार की सूची में पं. जसराज के षिष्य कला मर्मज्ञ मुकुन्द लाठ का नाम पढ़कर सुखद प्रतिती हुई। अर्सा पहले उनकी ‘संगीत एवं चिन्तन’ पुस्तक पढ़ी थी। दर्षन और संस्कृति के संगीत परक विमर्ष की यह अनूठी कृति है। विचार के स्वरूप को संगीत की दृष्टि से देखते वे इसमें कहते हैं, ‘दूसरी कलाओं की तरह राग-संगीत में भी व्युत्पति की रूढ़ियां हमें नये से एक सीमा तक रोकती है। राग-संगीत जैसी परम्पराओं में रूढ़ि-षास्त्र नहीं बांधता-गुरू, सम्प्रदाय, घराने बांधते हैं।’लाठ जब यह कहते हैं तो कलाओं के इतिहास को, उनके अतीत को, उनके संघर्षों को सहज जाना जा सकता है। विचार के स्वरूप को पहले पहल संगीत की दृष्टि से देखते वह बेहद महतवपूर्ण अवधारणाएं भी औचक देेते हैं। मसलन ‘संगीत संस्कृति विषेष की परिधि के भीतर ही बनता और पनपता है क्योंकि शब्द का अनुवाद हो सकता है, पर स्वर का नहीं।’ यह भी कि चिंतन भाषा के माध्यम से होता है, संगीत स्वर के माध्यम से।’ और यह भी कि संगीत की हर समृद्ध परम्परा अपना अलग ‘आधुनिक’ बनाती है जिसमें दूसरे का प्रवेष कु-साध्य होता है।’ लाठ से जब संवाद होता है तो भारतीय संगीत के संबंध में बने बहुत से पूर्वाग्रह टूटते भी हैं। वे कहते हैं, ‘चिन्तन में सृजन की संभावनाओं का वैसा ही सहज विस्तार है जैसा रागदारी में। वैसी ही बहुलता भी है।’ कलाओं के अपने गहरे सरोकारों में लाठ दर्षन की गहराईयां लिए है। लाठ ने दत्तिल मुनि के ढाई सौ श्लोकों के संस्कृत के प्राचीन संगीत ग्रंथ ‘दत्तिलम’ का अनुवाद और विवेचन किया है। जैन व्यापारी और अध्यात्म कवि बनारसीदास की आत्मकथा ‘अर्द्धकथानक: हाफ ए टेल’ के नाम से अनुवाद करते भारत में आत्मकथा लेखन का सूक्ष्म अध्ययन और विवेचन किया है। वीनांद कालावर्त के साथ निर्गुण कवि नामदेव के मूलपाठ का विस्तृत शोध एवं अनुवाद करते प्राचीनतम पाठ की गेय परम्पराओं का महीन विष्लेषण भी किया है। उनका मौलिक चिन्तन मन को झंकृत करता है। जरा देखें उनकी लिखी ये पंक्तियां, ‘चिंतन के साथ संगीत बज नहीं सकता लेकिन इसका यह अर्थ नहीं हे कि इनकी किसी भी तरह जुगलबन्दी नहीं हो सकती।’ बहरहाल, राग, धुन, आलाप जैसी शब्दावली के अपने चिन्तन में मुकुन्द लाठ का संगीत चिन्तन सर्वथा नयी दीठ लिए है। इस दीठ का सम्मान क्या हम सबका सम्मान नहीं है?

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