Saturday, February 6, 2010

डेली न्यूज़ में प्रति शुक्रवार को एडिट पेज पर प्रकाशित लेखक का स्तम्भ कला तट

२२ जनवरी २०१० को प्रकाशित
झरने लगते हैं शब्द
एक कलाकृति से जब कभी किसी भी रीति से हम प्रतिकृत होते हैं, उससे हमारी एक प्रकार की अंतरंगता बनने लगती हैं। वह हमें अपने नजदीक लगने लगती है। उसके रहस्य को भी तब हम छूने लगते हैं परन्तु कलाकृति को देखते समय की हुई हमारी ढे़रो अनुभूतियों को क्या हम ठीक वैसे ही व्यक्त कर सकते है? दरअसल कलाकृति को देखना और उसके बारे में कुछ कहना दोनों ही अलग है। देखना हमारी एक क्रिया है जबकि उसकी व्याख्या प्रतिक्रिया। देखना अन्तर्मन अनुभव है। देखने के समय हम कलाकृति की तात्कालिक संवेदना से जुड़ते हैं परन्तु लिखने बैठते हैं तो अन्तराल का गैप कुछ और अर्थ ध्वनित करने लगता है। मुझे लगता है हर कलाकृति में कलाकार कला का अपना स्वयं का व्याकरण रचता है। यह जब लिख रहा हूं, अवधेष मिश्र की एक कलाकृति जेहन में कौंध रही है। सूर्य के गोले में प्रकृति की अद्भुत सृष्टि में रंगो के लोक की उनकी चित्रकृति में परम्परा के साथ आधुनिकता का सर्वथा नया व्याकरण है। इस चित्र में अनुभव हैं। स्मृतियां है और परम्पराओं को भी परोटा गया है। अवधेष के लगभग सभी चित्रों में कला की इसी प्रकार की दीठ है। यही कारण है वे मन को आंदोलित करते हैं।दरअसल किसी भी कलाकृति के व्याकरण में समय की संवेदनाओ ंऔर कला की परम्पराओ को जोड़ते हुए लिखते वक्त कलाकृति के अंदर प्रवेष करना होता है। उसमें रचना और बसना पड़ता है। तब शब्द नहीं ढूंढने पड़ते। शब्द अपने आप ही झरने लगते हैं। यदि कोई कलाकृति किसी देखने वाले में चैकन्नी विचारषीलता और अपार रसिकता जगाती है तो स्वतः ही उसका विष्लेषण देखने वाला करने लगता है। यही किसी कलाकृति की सहज आलोचना है। कलाकृति में महत्वपूर्ण यह नहीं है कि वह किस वाद से प्रेरित है या फिर यह कि वह किन सिद्धान्तों पर आधारित है। महत्वपूर्ण यह है कि उसे देखकर मन को कितना सुकून मिल रहा है और वह संवेदना के स्तर पर कितना हमें जगाती है और जिस समय में हम जी रहे हैं, उस समय में उसकी प्रासंगिकता क्या है। कलाकृति को देखते हुए उसके आस्वाद का यह अहसास ही तब मूल्यांकन का हमारा सहारा बनता है। इस सहारे से प्राप्त मंजिल ही क्या किसी कलाकृति की सहज आलोचना नहीं है?

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