Friday, June 1, 2012

लोक नाट्यों में है तमाम हमारी कलाओं का मेल


लोक विश्वास, परम्परा, मनोरंजन और जीवन की उत्सवधर्मिता का सांगोपांग चितराम कहीं हैं तो वह लोकनाट्यों में है। सामाजिक, धार्मिक और ऐतिहासिक कथानकों का सीधी सरल भाषा में रोचक रूप में सहज संप्रेषण वहां जो है। लोकनाट्यों की समृद्ध संस्कृति देशभर में रही है। महाराष्ट्र में यह तमाशा है तो उत्तरप्रदेश में रास-लीला, नौटंकी, भाण। मध्यप्रदेश में यह मांच है तो बंगाल में जात्रा और गंभीरा। दक्षिण भारत में यक्षगान और विथि नाटकम लोकनाट्य के ही रूप हैं। राजस्थान में यह ख्याल, रम्मत, नौटंकी, स्वांग के रूप में हैं। नाट्य के सभी तत्व इनमें मिलेंगे परन्तु ताम-झाम नगण्य।  

बहरहाल, पिछले दिनों राजस्थान संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष अर्जुनदेव चारण के आमंत्रण पर मेड़तारोड़ में कुचामणी ख्याल यात्रा आयोजन संगोष्ठी में भाग लेते लोकनाट्यों की हमारी परम्परा को गहरे से जिया। लगा, यह लोक नाट्य ही हैं जिनमें तमाम हमारी कलाओं का मेल है। किसी एक कला में नहीं बल्कि तमाम कलाओं में लोक कलाकार निष्णात होते हैं। निष्णात न भी कहें तो अभ्यासी कह सकते हैं। लम्बे-लम्बे संवाद भी सहज सांगीतिक रूप में अदा करते वह कहन की अपनी शैली से चमत्कृत करते हैं। मुझे लगता है, कलाओं के अंन्र्तसंबंधों को व्यवहार में यदि जानना है तो लोकनाट्य हमारी मदद कर सकते हैं। मित्र शैलेन्द्र उपाध्याय के साथ हमने दूरदर्शन के लिये ब्रह्माणी मंदिर परिसर में कुचामणी ख्याल राजा हरिष्चन्द्र को षूट किया। बगैर पूर्वाभ्यास के कलाकार लोकनाट्य विधा को जैसे अपने में आत्मसात किये थे। संवादों की अनूठी लय अदायगी। चरित्र को अपने में समाहित करने की गजब जीवंतता। ख्याल में भूमिका निभाने वाले कलाकार संगीतज्ञ होते हैं। अभिनेता होते हैं। नर्तक होते हैं और गायक भी होते हैं। माने तमाम कलाओं का मेल कहीं है तो वह इन लोक नाट्यों में ही हैं। विडम्बना देखिए, बावजूद इस समृद्धता के आधुनिकता की आंधी बहुत से लोकनाट्यों को उड़ा भी ले गयी है। शायद इसका कारण यह भी है कि लोकनाट्यों में समय सरोकार समाप्त से होते चले गये है।

बहरहाल, कभी देवीलाल सामर ने कुचामणी ख्याल में आधुनिक समय के संदर्भ डालते फिर से उन्हें रचा। मसलन मीरा को अपने तई ‘म्हाने चाकर राखोजी’ से उन्होंने पुनर्नवा किया। धुनें वही रखी। नाचने गाने की शैली वही रखी। यहां तक कि नगाड़े, ढोलक की तालें भी वहीं रखी गयी परन्तु कुछेक प्रतिकात्मक रंगमंचीय सामग्री का प्रयोग अधुनातन परिवेश के हिसाब से किया गया। देशभर में ख्याल की उनकी यह प्रस्तुति खासा लोकप्रिय हुई। देवीलाल जी ने इसी तरह के प्रयोग ढोलामारू, मूमल-महेन्द्र के नाम से राजस्थान की चिड़ावा शैली में भी किये और उनमें उनको अपार सफलता भी मिली। ख्याल, नोटंकी, स्वांग, रम्मतों आदि लोकनाट्यों को समय के हिसाब से इसी तरह से पुनर्नवा करना होगा। माने पारम्परिक कथानक के स्थान पर नवीन कथानक लिया जा सकता है। समाज की नवीन समस्याएं ली जा सकती है। परिवेश नया हो सकता है परन्तु कला का मूल वही रखें। इस से होगी लोकनाट्यों की हमारी समृद्ध परम्परा का सही में संरक्षण। 

संगीत नाटक अकादमी और दूसरी संस्थाओं को यह भी चाहिए कि लोकनाट्यों से जुड़े पारम्परिक कलाकारों में से कुछेक को चिन्हित करें। लोकनाट्य गुरूओं के रूप में। राज्य स्तर पर लोकनाट्य प्रशिक्षण के लिये उन्हें बुलाया जा सकता है। आधुनिक समय संदर्भों से यदि लोकनाट्य होते है तो लोग उन्हें पसंद भी करेंगे क्यांेकि लोक नाट्य में पद्यांशों की बंदिशें परम्परागत स्वरबद्ध होती है। ये बंदिशे गायी अवश्य जाती है परन्तु वे कुछ इस तरह से बंधी हुई होती है कि सीधे संवादो की तरह असर करती है। पात्रो को अपनी कल्पना के हिसाब से गद्य में भी पद्य़ की मानिंद वहां बहुत करने की छूट होती है। इसी से होती है दर्शकों की भागीदारी। 

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