Monday, June 18, 2012

चले भी आओ ...



मेंहदी हसन साहब के गान में अजीब तरह की एक बैचेनी और एक अनकहे खालीपन को अनुभूत किया है। गान में बोल के टूकड़े करते उसे अपने तई निभाते वह बहुतेरी बार चमत्कारिक अहसास भी कराते रहे है। उनके इस अहसास में न जाने क्यों हर बार गजल के शब्दों के भीतर के ओज से अपनापा भी हुआ है। वह गाते तो गजल के शब्दों को अपने तई आवाज का जैसे लिबास पहनाते। याद करता ह तो उनकी गायी ‘रफ्ता-रफ्ता वो मेरी हस्ती का सामां हो गये...’ गजल बहती हवा के सुरमय झोंको का अहसास कराती मन को अजीब सा सुकून देती है तो दूसरी तरफ ‘मुझे तुम नजर से गिरा तो रहे हो...’ सुनकर जो अहसास होता है उसे बंया ही नहीं किया जा सकता। 
अभी बहुत समय नहीं हुआ फरहत शहजाद की लिखी गजल उनके स्वर में सुनी थी, ‘भूल भी जाओ पागल लोगों/क्या-क्या खोया, क्या क्या पाया है।’ सुनते हुए उनके गान के मखमलीपन और पुरकशिश अंदाज मंे जैसे खो सा गया। यह अंदाज उनका अपना है। गान की यही उनकी वह मौलिकता है जिसने उनकी आवाज के असंख्य दिवाने बनाए। मीर तकी मीर ने कभी एक गजल लिखी थी, ‘पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा, हाल हमारा जाने है’। बी.आर. ईशारा निर्देशित ‘एक नजर’ फिल्म में मजरूह ने इस गजल की शुरूआती पंक्तियां लेते हुए गीत लिखा और उसे गाया लता मंगेशकर और रफी ने। मीर तकी मीर की असल गजल को मेंहदी हसन ने अपने अंदाज में गाया है। इसे सुनते हैं तो फिल्मी गीत को भूलने का मन करता है। मीर तकी मीर के एक-एक शब्द को जैसे मेंहदी हसन ने इस गजल में जिया है। मुझे लगता है, यह मेंहदी हसन ही हैं जो गजल के शब्दों के उस अनकहे पर भी जाते हैं जिसमें संगीत का अवकाश होता है। माने जहां शब्द नहीं पहुंचते वहां मेंहदी हसन की आवाज पहुंच जाती है। संगीत और काव्य का यही तो वह मेल है जिसमें कोई कलाकार अपने होने का यूं अहसास कराता है।
प्रायः सभी गायी उनकी गजलें मकबूले-आम है परन्तु फैज अहमद फैज की लिखी ‘...चले भी आओ कि, गुलशन का कारोबार चले...’ सुनते जैसे उन्हंे गुनने का मन करता है। वह अपने गाये में लिखे हुए के भावों या रस को अक्षुण रखते हैं। गजल गान के उनके आलाप में स्वरों के उतार-चढ़ाव का जादू उनके गाये से हमें जुदा नहीं होने देता। इसीलिये उनके बहुत नहीं परन्तु थोड़े बहुत गाये को जैसे भी सुना है वह जेहन में बार-बार औचक उस सुर निभाव के साथ कौंधता है।  शब्द की स्थूल लौकिकता स्वरों में वहां तिरोहित जो हो जाती है। मेंहदी हसन साहब 20 के थे तब बंटवारे के दौरान पाकिस्तान के हो गये। उस मुल्क की नाकद्री देखिए शंहशाहे गजल का मोल उसने पहचाना ही नहीं। शायद यही कारण था कि वह भारत के लिये सदा बैचेन रहे। मुझे नहीं पता इसमें कितना सच है परन्तु कहते हैं मेंहदी हसन के गान को कभी लता ने ईश्वर की आवाज बताया था। हां, इसमें कोई शक नहीं कि यह मेंहदी हसन ही थे जिन्होंने उस दौर में अपनी पहचान अपने तई बनायी जब उस्ताद बरकत अली खान, बेगम अख्तर जैसे गायकों को सुनने के लिये अवाम टूट पड़ती थी।
बहरहाल, मेंहदी हसन ने अपने पिता उस्ताद अजीम खान साह और चाचाइस्माईल खान साहब से गान की तालिम ली थी। जगतीत उन्हें सुनकर ही कभी पाकिस्तान जा पहंुचे थे, उनसे मिलने। जगतीत तो बाद में जहां से ही चले गये परन्तु यह नहीं पता था कि उनके बाद अब इतना जल्दी मेंहदी हसन भी इस जग को छोड़कर यूं चले जाएंगे!


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