Monday, June 18, 2012

लहर-लहर सौन्दर्य की सर्जना


महेश शर्मा शिरा अपने चित्रों में प्रकृति सौन्दर्य का स्मृति रूपान्तरण करते हैं। ऐसा करते वह कैनवस को जो ओप देते हैं, उसमें प्रकृति के बहुविध रूप है। मसलन वहां ओस की बूंदों, सागर की लहरों, दूधिया झरनें, नभ मंे उड़ते खग, बर्फ से ढके पर्वत, पहाड़, और हरियाली की चादर ओढे धरित्री का अनूठा स्मृति भव है।

अभी बहुत समय नहीं हुआ, पहले मुम्बई के जहांगीर आर्ट गैलरी में उनके चित्रों की प्रदर्शनी आयोजित हुई थी।

कुछ समय पहले दिल्ली में आईफा गैलरी में भी उनके चित्र देखे थे। सहज स्फूर्त क्रियाषीलता के अंतर्गत आत्मिक भावों के उनके ऐसे रूपांकन में सादृष्य से स्वतः अपनापा होता है। इसलिये कि रंग आच्छादकता का उनका यह लोक सांगीतिक आस्वाद कराता हमें देखे हुए को गुनने का अवसर देता है। प्रकृति जैसी है, उसका यथार्थ अंकन करने की बजाय वह उसमें स्मृतियों की संवेदनाओं को परोटते हैं।  कैनवस पर उनके दृष्य कोलाज कोहरा छंटाती धूप की मानिंद हमारे समक्ष जैसे-जैसे प्रकट होते हैं, हम उनमें प्रकृति और जीवन के अपने अनुभवों की तलाष करने लगते हैं। घना जंगल, कोहरा ढका आकाष, पहाड़ों पर इतराती धूप और जीव जंतुओं के उनके कैनवस चितराम अदृष्य से दृष्य की एक प्रकार से यात्रा है। आरंभ में कैनवस पर रंगों की पारदर्षी लेयर भर नजर आती है। झीने प्रकाष में आवृत फिर धीरे-धीरे कहीं कोई चिड़िया, कहीं कोई पहाड़, कहीं कोई झरना दिखाई देने लगता है। वस्तुओं, प्राणियों में सादृष्य का विचार किए बगैर वह रंगों, रेखाओं में आकारों की ऐसे ही अनूठी सौन्दर्य निर्मिति करते हैं।

बहरहाल, महेष शर्मा षिरा खैरागढ़ स्थित देष के एक मात्र इन्दिरा कला और संगीत विष्वविद्यालय में कला संकाय के अधीष्ठाता हैं। खैरागढ़ जाना हुआ तो उनके चित्रों से गहरे से रू-ब-रू हुआ। मुझे लगा, भीतर की अपनी कला संवेदनाओं का कैनवस रूपान्तरण करते वह प्रकृति और जीवन की अपने तई खोज करते हैं। कभी पिकासो ने कला को ‘खोज की यात्रा’ ही तो कहा था। इस दीठ से मुझे लगता है, महेष शर्मा के चित्र प्रकृति और जीवन की कैनवस खोज है। परछाईनुमा आकृतियों में वह रंगों के पारदर्षीपन में स्मृतियों का अनूठा निरूपण करते है। समुद्र की लहरें, उनमें बसती-तैरती मछलियां, पहाड़, पेड़, फूल-पत्तियां और अनंत नभ में उड़ते खग। इन सबका उनका कैनवस एक प्रकार से गान है। प्रकृति निनादित उनके इस कैनवस गान में सफेद में पीला, नीला, हरा, लाल रंग जैसे हमसे बतियाता है। रंगो से दीप्त एक चित्र में फूल-पत्तियों से औचक पक्षी की आकृति झांकती है तो दूसरे चित्र में ओस की बूंदो के पार्ष्व में हरियाली के अक्ष उभरते हैं। ऐसे चित्र और भी हैं। मसलन कहीं गुफा से झांकता आधा चांद नीले-काले में अद्भुत सौन्दर्य से साक्षात् कराता है तो कहीं धूंए में लिपटी जंगली जीव-जन्तुओं की आकृतियां गत्यात्मक प्रवाह में तेजी से भागती औचक आंखों से ओझल हो जाती है। प्रकृति और जीवन के ऐसे ही जीवन्त दृष्यों में महेष शर्मा षिरा नैसर्गिक रूप का अनुकरण करते कहीं गाढ़े तो कहीं हल्के रंगों में अंगीकृत छाया लोक का सृजन करते हैं। माने उनके तमाम चित्र छाया-आच्छादित हैं। इनमें देखे गये दृष्य नहीं बल्कि उनका प्रभाव हैं। रंग आच्छादकता मे कैनवस पर सफेद को प्राथमिकता है परन्तु तमाम रंगों का अपना अलग अस्तित्व भी है। इस अस्तित्व में कभी नीला प्रमुख हो जाता है तो कभी लाल तो कभी हरा तो कभी पीला। दृष्य में परिणामकारक प्रभाव लिये भी हैं उनके चित्र।

मुझे लगता है, प्रकृति को अपने तई रंग कैनवस में बरतते वह लहर-लहर सौन्दर्य की सर्जना करते हैं। रगों की अनूठी सांगीतिक लय है। धूंध से उभरती आकृतियों में पक्षियों के कलरव को वहां सुना जा सकता है तो मछलियों के तैरने को अनुभूत भी किया जा सकता है।


No comments: