Friday, June 8, 2012

सहज मन के सुरों में प्रकृति की धुन



सम और गीत से बना शब्द है संगीत। सम माने सहित और गीत का अर्थ है गान। कोयल की कूक सुनते हैं तो मन में मीठी सी कोई हूक जगती है न! झरनों का झर-झर, नदियों का कल-कल, बरसात की बूंदों की रिम-झिम यह सभी सुनें तो मन करे अंदर से इन्हें गुनें। प्रकृति की यह धुनें ही तो हैं संगीत का आदिम स्त्रोत। आपने महसूस किया होगा, मन पाखी भी तो प्रकृति में विचरते बहुतेरी बार औचक गाने लगता है। कईं बार प्रकृति की कोई धुन मन के भीतर इस कदर उतरती है कि बार-बार उसे सुनने को, गुनने को मन करता है। प्रकृति की धुन माने वह सच्चे हृदय से उपजी हो। जिसमें कोई बनावट नहीं हो। सहज जो सुनायी दे।
बहरहाल, कुछ दिन पहले पंडित मल्लिकार्जुन मंसूर द्वारा लिखी उनकी आत्मकथा ‘रस यात्रा’ का आस्वाद कर रहा था। इसमें वह लिखते हैं, ‘अच्छा संगीत श्रोताओं को भावों के उच्चासन पर पहुंचा देता है।’ सच ही तो है! यह संगीत ही है जिसमें मन सांसारिकता से दूर एक अलग दुनिया में चला जाता है। भौतिकता की उपस्थिति वहां नहीं रहती। हरिओम शरण को सुनते ऐसा ही लगता है। सांसारिकता में होते भी लगता है, मन उससे अलग अपने भीतर की तलाष में पहुंच गया है। भले वहां शास्त्रीयता की सौन्दर्य परिणति नहीं है परन्तु अंतर्मन संवेदनाओं के गान की गहन अनुभूती है। कहें, सहज, सरल शब्दो में आप-हम सबका मन वहां जैसे गाता है। मन करता है, बार-बार उन्हें सुनें। शायद इसलिये कि उनके सुरों मंे प्रकृति की धुन है। कहीं कोई बनावटीपन नहीं। अपने को संप्रेषित करने का कहीं कोई आग्रह नही। वहां प्रभु अर्चना है। मन की वेदना है। व्यर्थ किये का सच्चा पश्चाताप है। और है एक साधक की साधना। मुझे लगता है, संगीत की प्रकृति को सही से समझना है तो उन्हें सुनना ही चाहिए। इसलिये कि उन्हें सुनते एकरसता से परे हर बार नव आनंद की प्राप्ति होती है। संस्कृत में कहा गया है, ‘स्थाने-स्थाने यत नवतम् उपैति/तदैव रूपम रमणीयताया।’ नवीनता का सौन्दर्य निकष। क्षण-क्षण की रूप रमणीयता। सुर, राग, बोल सभी वही परन्तु सुनने में सदा नये की अनुभूति।
बहरहाल, भजन संगीत की हमारी समृद्ध परम्परा को हरिओम शरण ने अकेले अपने बूते संपन्न किया। वह ऐसे हैं जिन्हें आज भी उसी चाव से सुना जाता है। सादगी के उनके गान पर मन न्योछावर होता है। सच्चे अर्थों की सुर अभ्यर्थना वहां जो है। यह लिख रहा हूं और उनका गाया जेहन में गहरे से बस रहा है, ‘निर्मल वाणी पाकर तुझसे, नाम न तेरा गाया। नैन मूंदकर हे परमेष्वर, कभी न तुझको ध्याया।’ शब्द भर नहीं, शब्दों के भीतर का गान है यहां। बहुत छोटा था तब। अलसुबह घर में दादी को हरजस गाते सुनता था। न जाने कहां से आए थे उनके हरजस के वे बोल। मैंने बहुत से लिखे हुए भी है परन्तु उनका स्त्रोत अभी भी नही जान पाया परन्तु उनमें सच्चे अर्थों की अभिव्यंजना को आज भी अनुभूत करता हूं। दादी को संगीत का ज्ञान कहां था! वह तो हरि स्मरण करती थी। ऐसा करते बोलों के निभाव में वह अपने को भी जैसे तब भूल जाती। उनकी उस तंद्रा को याद करते लगता है, संगीत के सच्चे सुरों में अपने को भूलना जरूरी होता है। हरिओम शरण का गान ऐसा ही है जिसमें उन्होंने जो भी गया अपने को भूलकर गाया। ‘दाता एक राम’, ‘प्रभु हम पे दया करना’, ‘तेरा रामजी करेंगे बेड़ा पार’, ‘उद्धार करो भगवान’ जैसे गाये उनके भजन सुनते मन नहीं भरता। प्रार्थना। अर्चना। याचना। करूणा। और मनुष्य होने का मामूलीपन। अबोध और निर्दोष भाव। कहें, सच्चे मन की सुराजंलि। जो गाया अंतर्मन से। उनका गाया सांस और संगीत का मेल है। यही तो है प्रकृति के सुर। विष्वास नहीं हो तो उन्हें सुनें। मन करेगा उन्हें गुनें। 

3 comments:

Hetprakash vyas said...

Hariom saharan ke geet to sundar hain hi apkalekhen bhi behad sookon de raha hai. thanks for this worth reading matirial.

Hetprakash vyas said...

Hariom saharan ke geet to sundar hain hi apkalekhen bhi behad sookon de raha hai. thanks for this worth reading matirial.

अविनाश आचार्य said...

हरिओम शरण मेरे प्रिय हैं. उन पर कमाल का लिखा है आपने. बधाई और शुभकामनाएं.