Friday, August 10, 2012

कृष्णम वन्दे जगदगुरुम

भगवान श्रीकृष्ण! बंसी बजईया, कृष्ण कन्हैया। वह जिसमें सम्मोहन है। आकर्षण है। तमाम हमारी कलाओं के संदर्भ अंतत: इस श्रीकृष्ण से ही तो जुड़े हैं। वे रसेश्वर हैं। वेणुवादक हैं। नर्तक हैं। शंखनाद करने वाले हैं। कलाओं के युग्म। ईश्वर! चौसठ कलाओं की समग्रता लिए पुरूषोत्तम। यह श्रीकृष्ण ही हैं, जिनका चरित्र मोर पंखों की मानिंद मनभावन रंगों से रंगा है। सब ओर से विरक्त। स्वयं अनासक्त। पर कर्षयति इति कृष्ण।" माने श्रीकृष्ण का अर्थ ही है, वह जो आकर्षित करे। इसीलिए तो उन पर हर कोई आसक्त हुआ जाता है। कोई उनकी बांसुरी की तान पर। तो कोई उनकी मधुर मुस्कान पर। कल्पना करता हूं...वे बसी बजाते होंगे, तो वन मे सभी भाव विभोर हो नर्तन ही तो करते होंगे। स्वयं श्रीकृष्ण नर्तक हैं। नृत्य सम्राट। आनंद, उमंग और उत्सवधर्मिता है उनका नाच। सबको रिझाते। हंसते-गाते। कहते हैं कृष्ण जब बंसी बजाते तो आठ राग और सोलह हजार उप राग बजाते। उनके रास अंतर्गत ब्रज में ही तो जन्मी थी सोलह हजार राग-रागिनियां। सच! श्रीकृष्ण हैं ही रागानुरागी। उनका रास सृजन है और जो बंसी वे बजाते हैं, उसकी धुन उस सृजन का गीत। उनका मनोहरी रूप हमें सदा मोहता है। उनकी मुस्कान मन में बसती है।
मीरा का यह गान सुनें- "थे तो पलक उघाड़ो दीनानाथ, मैं हाजिर-नाजिर कद री खड़ी।" स्मरण करें श्रीकृष्ण के मनोहारी रूप को। कौस्तुभादि आभूषण। गले में पुष्पहार। पीताम्बरादि वस्त्र। किरीट में मयूर पंख। अधरों पर मुरली। कला का समग्र बोध लिए हैं श्रीकृष्ण का यह रूप। इसीलिए तो यह मन में घर करता है। चाहकर भी इस मनोहारी छवि से हम कहां मुक्त हो पाते हैं! श्रीकृष्ण की छवि में प्रेम झर-झर झरता है। नेह में भीगता है मन। उन्हें पूजने का नहीं प्रेम करने का करता है मन। बस प्रेम करने का। शायद इसलिए कि श्रीकृष्ण न भूत, न भविष्य, न वर्तमान है। वे तो बस हैं। काल का अविरल प्रवाह है उनका होना। मेघ वर्ण। सांवले। सलोने। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के अनुसार श्ृंगार का रंग भी सांवला है। और श्रीकृष्ण तो श्ृंगार के ही पर्याय हैं।

श्रीकृष्ण का जीवन कला के गहरे मर्म लिए हैं। कलाएं हमें मुक्त करती हंै, तमाम बंधनों से। जीवन जीना भी कला है और यह कला कोई श्रीकृष्ण से सीखे। विषमताओं में भी वे बंसी बजाते मिलते हैं। किसी भी परिस्थिति में अरूचिकर गंभीरता को उन्होंने कभी न ओढ़ा। पाने-खोने का गम वहां नहीं है। एक बार जहां से वे चले गए, फिर पीछे मुड़कर कहां देखा! गोकुल छोड़ दिया तो छोड़ दिया। मथुरा छोड़ दी तो बस छोड़ दी। मुझे लगता है, उनका समग्र जीवन निरंतरता का संदेश है। आगे बढ़ने का संदेश। उनका कर्म उपदेश वह है जिसमें आपके होने का मर्म हो। कर्म। चरम नहीं परम। गीता के श्रीकृष्ण कर्मयोग का संदेश देते हैं तो भागवत के मुरारी जीवन जीने का धर्म और कला सिखाते हैं। ऎसी कला जिसमें हंसते, मुस्कुराते कठिनाइयों झेलते हुए भी निर्णय लेने की प्रतिज्ञा है।

यह श्रीकृष्ण के जीवन की विडंबना ही है कि जन्म के समय उन्हें विष दिया, तो एक स्त्री ने और मृत्यु का कारण भी स्त्री ही बनी। जन्म लेते ही पूतना ने विष दिया। गांधारी ने उनके सपूर्ण परिजनों के सत्यानाश का शाप दिया। फिर भी स्त्री सम्मान के लिए ही ता उम्र वे लड़ते रहे। द्रोपदी का चीर बढ़ाया। आदिवासी कन्या जाम्बवती से विवाह किया। नारकासुर की नारकीय कैद से छुड़ाकर उन çस्त्रयों को अपनी पत्नी बनने का अधिकार दिया, जिन्हें समाज ने कुलटा, पतिता कहा। यह श्रीकृष्ण ही हैं, जिन्होंने राजसूय यज्ञ में आमंत्रितो के झूठे पात्र उठाए। सारथि दारूक, निर्धन सुदामा को मित्र का मान दिया। श्रीकृष्ण! माने युगंधर। युग प्रवर्तक। आखिर यूं ही तो नहीं कहा गया है, श्रीकृष्ण यदि भारतीय जीवन दर्शन में न रहे तो फिर बचेगा ही क्या! न साहित्य, न संगीत और न जीवन की उत्सवधर्मिता। जीवन जीने की कला के उत्तम पुरूष हंै भगवान श्रीकृष्ण! 

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