Saturday, August 25, 2012

कुमारस्वामी व्याख्यान में रवीन्द्र का चित्रकर्म


भारतीय कला का सूक्ष्म मूल्यांकन कर उसे विश्वभर में प्रतिष्ठित करने का श्रेय किसी कला अध्येता को जाता है तो वह डॉ. आनन्द के. कुमारस्वामी हैं। पढ़ते हैं तो हमारे यहां की चित्रकला, मूर्तिकला, वास्तुकला, नृत्य, संगीत आदि का उनका चिंतन गहरे से मन में घर करता है। शायद इसलिये कि यह कुमारस्वामी ही हैं जो कला के इतिहास के साथ उसकी निर्माण-प्रक्रिया की गहराई में भी जाते हैं। 
बुधवार को जवाहर कला केन्द्र में आनन्दकुमार स्वामी स्मृति व्याख्यान रखा गया था। केन्द्रीय ललित कला अकादमी प्रतिवर्ष यह आयोजन करती है। इस बार सुखद यह रहा कि यह आयोजन राजधानी दिल्ली में नहीं होकर जयपुर में हुआ। शांतिनिकेतन विश्वभारती से आए प्रो. आर.शिवाकुमार ने कुमारस्वामी व्याख्यान के अंतर्गत रवीन्द्रनाथ टैगोर की चित्रकला में आधुनिकता को चुनते हुए बहुत सी पहले प्रकाश में नहीं आयी बातों को साझा किया। उन्हे सुनते हुए आनन्दकुमार स्वामी के कला आलोचना कर्म की उन विशेषताओं पर भी औचक ध्यान गया जिसमें चित्रकला में जो दिख रहा है, वही नहीं बल्कि चित्र के भीतर निहित में भी वह गहरे से जाते उसकी अपने तई खोज करते रहे हैं। 
बहरहाल, प्रो. आर.शिवाकुमार अपने व्याखान में जब यह बता रहे थे कि रवीन्द्रनाथ ने चित्रकला की विधिवत शिक्षा नहीं ली बल्कि अपने अग्रजों और घर-परिवार के परिवेश, घटनाओं से उन्होंने सीखा तो लगा यही तो वह कारण थे जिससे अपने तई प्रयोगधर्मिता के साथ उम्र के आखरी पड़ाव में भी उन्होंने चित्रकला में संवेदना का सर्वथा नया मुहावरा दिया। मुझे लगता है, यही वह मुहावरा है जिसके अंतर्गत उनकी कलाकृतियों मे उभरे बिम्ब, प्रतीक और कालेपन में औचक उभरती रेखाओं की धवलता अपनी मौलिकता में आज भी हमें आकृष्ट करती हैं। 
प्रो. आर.शिवाकुमार ने रवीन्द्र की कला पर चर्चा के साथ ही जापान और योरोप में कला मंे आधुनिकता के प्रयोगों से रवीन्द्र की कला को जोड़ा भी। मसलन जापान की कलाओं के अर्न्तनिहित उस चुप्पी पर भी वह गये जिसमें भीड़ के बावजूद सन्नाटे का छंद हैं। जहां चाय की केतली में उभरी आकृतियांे में समुद्र की लहरें, बहती नदियों के गान के साथ ही कैलिग्राफी में सौन्दर्य की सर्जना है। जापान ही क्यों चीन की कलाओं में उभरी मानव संरचनाओं, भांत-भांत की मुखाकृतियों और वहां की वास्तु कला में उभरी आधुनिकता भी तो किसी न किसी रूप में विश्व में कला सर्जन का हेतु रही ही है।
रवीन्द्र के चित्रांे पर गौर करता हूं तो न जाने क्यों वहां एक खास तरह की एकान्तिका को अनुभूत करता हूं। माने वहां सब कुछ हैं, रेखाएं-सघन टैक्सचर और रंगों की आभा परन्तु इस सबके बावजूद जो निरवता और शांति वहां है वह अपने आपमें देखने वाले से जैसे बतियाती है। और रवीन्द्र ने तो अपने समय के आधुनिकतावाद को गहरे से चित्रों में जिया है। यह ऐसा है जिसमें भीड़ के बावजूद खालीपन ध्वनित होता है और शोर के बीच भी पसरे सन्नाटे का कहन है। कभी रवीन्द्र ने कहा भी था, ‘मैं अकेला हूं परन्तु मेरे आस-पास बहुत से लोग हैं और  उनसे मेरी संवेदनशीलता बहुत से स्तरों पर प्रभावित होती है।’ उनके चित्रों को देखंेगे तो लगेगा अपनी एकान्तिका में आस-पास की घटनाओं, लोगों की संवेदनशीलता को भी वह ध्वनित करते हैं। यह उनके चित्रों के सन्नाटे का मधुर छंद हैं। स्याह से धवलता की ओर उन्मुख होती उनके चित्रों की रेखाएं, और रंगों की आभा इसीलिये सौन्दर्य का सर्वथा नया मुहावरा लिये है। आधुनिकता में रचे-बसे उनके चित्रों को देखते हुए इसीलिये राफेल की याद आती है, जापानी कला की निरवता को हम अनुभूत करते हैं, पिकासो की मुखाकृतियां औचक जेहन में कौंधती है तो माइकल एन्जेलो की शरीर संरचना वाली कलाकृतियां भी न जाने क्यों मन में घर करने लगती है। कला में आधुनिकतावाद के इस सामने से ही तो सिरजा उन्होंने कला का अपना जग! आनन्दकुमार स्वामी व्याख्यानमाला में प्रो. आर.शिवाकुमार को सुनना सुखद था, इसलिये भी कि इसमें उन्होंने रवीन्द्र की वह दुर्लभ कलाकृतियां भी दिखायी, जिनमें आधुनिकता बोध के साथ भीतर की उनकी कला संवेदनशीलता का गहरा आकाश है। 

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