Saturday, August 18, 2012

माटी एक भेष धरि नाना


बरसात की बूंदे धरती के लिये जीवन है। बारिष होती है तभी तो ओढ़ती है धरती हरियाली की चादर। मिट्टी में घूला बीज प्रस्फुटित होता है। धरती से उठती है सौंधी सी महक। यह ऐसी है जिसे हर कोई महसूस करता है। ऐसे ही तो षिल्प में ढ़ल मिट्टी सर्जन की संपूर्णता का हेतु बनती है। यह मिट्टी का ही गुण है कि उसे किसी भी आकार और सांचे में ढाला जा सकता है। कैसे भी इसे बरत षिल्प की सुन्दर परिणति की जा सकती है। माटी है ही सर्जन की प्रतीक। सर्जन से गहरा अंतःसंबंध जो है इसका।  
माटी माने मिट्टी। मनुष्य की सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक आवष्यकताओं की पूर्ति के लिये उपयोगी वस्तुओं के निर्माण का प्राचीनतम साधन। कुम्हार मिट्टी से ही तो करता है सर्जन। सोचिए! पृथ्वी, सूर्य, पवन, अग्नि और जल से ही तो यह संसार है और कुम्हार जब नया घड़ा ढालता है तो इन सबसे ही अपने सर्जन को संपूर्णता देता है। पंचभूत तत्वों से बनता है शरीर और माटी का सर्जन भी इन्हीं तत्वों से होता है। कुम्हार को आखिर यू ंतो प्रजापति नहंी कहा जाता! 
हमारे यहां तो मिट्टी के ही हैं तमाम हमारे सर्जन सरोकार। तमाम हमारी परम्पराओं का निर्वाह। दुर्गा पूजा, गणगौर, गणपति आदि की प्रतिमाएं मिट्टी से ही तो बनती है। बाकायदा इनमें प्राण प्रतिष्ठा होती है। माना जाता है, पर्वोत्वस पर दुर्गा, गौरी, गणति जगते हैं और जब उनसे आत्मा अलग होती है तो फिर से ये भूमि और जल में विसर्जित कर दिये जाते हैं। माने जहां से ये आए, वहीं फिर से लौट जाते हैं। मिट्टी इसीलिये तो जीवन का प्रतीक मानी जाती है। कहें, मनुष्य को उसके समग्रपन में अवस्थित करने का कार्य किसी के जरिये होता है तो वह माटी ही है।
राजस्थान की मोलेला की मृण मूर्तियांे जग प्रसिद्ध है। मोलेला में कलाकारों को माटी मूर्तियों गढ़ते बहुतेरी बार देखा है। हर बार लगा, धरती पुत्र षिल्पकार सहज सरल तरीके से सर्जनात्मकता का निर्वहन करते हैं। पीढ़ी-दर पीढ़ी सर्जन की यह विरासत वह ऐसे ही छोड़ते जाते हैं। परम्परा और आस्था से निरंतर आगे बढ़ता जाता है सर्जन का यह सफर। षिल्पकार मिट्टी में रूप-अरूप, अदृष्य-प्रत्यक्ष, खंडता-असंलग्नता के बहुविध वैचित्र्य का एक ऐक्य सुर का गान करते हैं। कुम्हार जो मूर्तियां गढ़ते हैं, उनमें भीतर और बाहर के तमाम संघर्षों की बानगी है परन्तु अनूठी संगति भी है। सर्जन की संगति। जो दिखता है, वह इस जगत से है भी और नहीं भी। माने चिन्मय वास्तव। 
कहते हैं, मानवीय-सम्बन्धों में भाषा से भी अधिक व्याप्त होने वाला तत्व कोई है तो वह षिल्प ही है। इसमें संप्रेषण के सामान्य अवरोधों को समाप्त करने की क्षमता जो है। शायद इसीलिये आदि मानव ने अपने दैनिक उपयोग की वस्तुओं और भावनाओं का षिल्प संसार सर्वप्रथम रचा। सिन्धुघाटी काल के उपलब्ध षिल्पकारिता अवषेषों पर जाएं तो सहज यह कहा जा सकता है कि वहां सामान्य व्यवहार की वस्तुएं भी सौन्दर्यबोधक कृतियों में रूपान्तरित हो गई। कला के हमारे इतिहास में उपयोगिता में सौन्दर्य का समावेष कर षिल्प के अंतर्गत अंतरंग जीवन में भी सुन्दरता के महत्व को सदा प्रतिपादित किया गया है। यूं भी षिल्पकारिता जीवन के सहज स्पन्दन से उत्पन्न पूर्णता के गर्भ में ही प्रस्फुटित हुई है। यह माटी ही तो है, जिसमें विराट् से व्यष्टि के संबंध रूपायित होते हैं। कबीर इसीलिये तो एक मिट्टी में अनेक रूपधारी अखंड ब्रह्म का नाद करते हैं, ‘माटी एक भेष धरि नाना तामहि ब्रह्म पछाना।’ ...तो बारिष के इस दौर में भूमि पर पड़ती टप-टप बूंदों को निहारें। अनुभूत करें माटी के सर्जन की सौंधी महक। 


No comments: