Friday, November 16, 2012

काशी और एलिस बोनर



काशी  मंदिरों की नगरी ही नहीं कला भूमि भी है। ललित कला अकादेमी और जे.कृष्णमूर्ति फाउण्डेशन के आमंत्रण पर कुछ दिन पहले एक व्याख्यान देने वाराणसी जाना हुआ था। बनारस हिन्दू विश्वविध्यालय  स्थित कला भवन भी गया। लगा, संगीत, नृत्य, चित्रकला और संस्कृति की हमारी परम्पराएं अभी भी वहां जीवंत है। कलाविद् ‘एलिस बोनर’ के बारे में  काशी   जाने से पहले भी पढ़ा था परन्तु बनारस में उनकी दृष्टि से जैसे अपनापा हुआ। उनकी कला दीठ में काषी के घाटों से साक्षात् हुआ, एलोरा के गुफा चित्रों के बारे में जैसे नई समझ मिली और सुप्रसिद्ध नर्तक उदयशकर की नृत्य भंगिमाओं के बहाने संगीत, नृत्य, शिल्प, वास्तु और अध्यात्म के भारतीय सरोकारों को पश्चिम के किसी कलाकार की मौलिक दृष्टि से फिर से जाना।
अचरज भी हुआ। किसी भारतीय ने नहीं, पाष्चात्य कलाकार ने भारतीय कला और संस्कृति को अपनी कला में इस गहरे से जिया है! फिर सोचता हूं, कला का यही तो वह परम सत्य है जिसमें सर्जक जीवन की अपने तई तलाष करता है। एलिस ने यही किया। अपनी अनुभवी दृष्टि से भारतीय कला के रहस्यों में प्रवेश  करते उसने चित्रों में, मूर्ति में, नृत्य में अर्न्तनिहित को अपने तई समझा। कला की अपनी दीठ दी। उसने संसार की दृष्टिगत होने वाली वस्तुओं प्रकृति, मनुष्य, पषु तथा पेड़-पौधों को अपनी कला में मूर्त रूप ही नहीं दिया बल्कि भारतीय नृत्य की भंगिमाओं को आत्मसात करते रेखाओं, रंगों के साथ ही मूर्तियों में उन्हें जिया भी। 
विष्वास नहीं होता! भारतीय नृत्य के आस्वाद में कोई इतना खो जाए कि तमाम अपना जीवन ही उसके लिए समर्पित कर दे। पर सच यही है! एलिस इसी का उदाहरण है। ज्यूरिख में वर्ष 1926 में एलिस ने प्रख्यात नर्तक उदयषंकर का नृत्य देखा। नृत्य की उनकी भंगिमाएं और लालित्य की सुंदरता ने उसे जैसे मोहित कर दिया। एलिस को लगा, मंदिरों पर उत्कीर्ण होने वाली मूर्तियां उदयषंकर के नृत्य में जीवंत हो उठी है। बस, यहीं से एलिस का भारतीय कलाओं में रूझान बढ़ा और अगले पांच वर्षों तक वह उदयषंकर के कलाकर्म के साथ ही जीवन के उनके तमाम आयामों से जैसे एकाकार हो गयी। उनके नाट्य प्रदर्षन, पत्राचार, वेषभूषा के साथ ही योरोप और अमेरिका की उनकी यात्राओं की व्यवस्थाएं उसने की।एलिस के अनुसार, ‘यह वास्तव में भारत के बहुरंगीय जीवन का मेरे लिए एक सजीव चित्र था।’
बहरहाल, बाद में वाराणसी को एलिस ने अपना घर भी बनाया। वह बनारस के अस्सी घाट में रही। यहां रहते उसने काषी की महिमा को गुना और और उसे अपने चित्रकर्म, मूर्तिषिल्प में गुना भी। यहीं से बाद में वह उत्कल भूमि भी गयी। उड़िसा  में बिखरे षिल्प की तलाष करते ही उसने  ताड़पत्रों की अप्रकाषित पाण्डुलिपियां खोज निकाली। पण्डितों और षिल्पियों का सहयोग लिया और 12 वीं सदी में लिखे गये उड़िसा के तंत्र युग ग्रंथ ‘षिल्प प्रकाष’ का अनुवाद भी किया। प्रतिमा के सिद्धान्त का विधिवत एवं प्रतिकात्मक ज्ञान जैसे इससे उन्हें मिला। एलिस ने कहा भी, ‘कलाएं सौन्दर्य आस्वाद के लिए ही नहीं है, उनके जरिए आत्मा को एकाग्रचित किया जा सकता है। इसलिए कि वे सत्य हैं।’
 एलोरा पर एलिस ने जो लिखा है, वह विरल है। गुफा षिल्प पर लिखी उनकी सूक्ष्म कला दृष्टि पर जाता हूं तो यह भी लगता है कि यह एलिस ही थी जिसने एलोरा की गुफाओं के अर्थ संकेतों को पकड़ते प्रतिमाओं के अर्न्तनिहित को अपनी दीठ दी। इस दीठ मंे बाह्य सौन्दर्य के आकर्षण से प्रभावित होना ही कला की समझ की संपूर्णता नहीं है बल्कि जीवन के आंतरिक भाव को व्यक्त करना भी है। कहें, उसने कला और जीवन की गतिषीलता की आत्मा को पहचाना। इसीलिए बाद में जब एलिस  ने नर्तक, संगीतकारों के चित्र, मूर्तियां बनायी तो उनमें भारतीय संस्कृति जीवंत हो उठी। 
काषी से लौटे इतने दिन हो गये परन्तु एलिस की कला, उसकी भारतीय कला दृष्टि का प्रकाष अभी भी जेहन में रह-रह कर कौंध रहा है। एलिस ही क्यों, काषी की दूसरी कला अनुभूतियां भी तो इतनी है कि उन पर लिखूं तो कई सौ पृष्ठ भी कम नहीं पड़ जाएंगे! यही सब सोच रहा हूं कि मन में विचार आ रहा है, काषी का अर्थ भी तो प्रकाष ही है। काष् धातु है। अर्थ है-ज्योतित करना।  दृष्टि में जो ज्योतित है, उन्हें क्या शब्दांे में व्यक्त किया जा सकता है!