Saturday, November 24, 2012

सुर की अद्भुत लय


ध्वनि माने नाद। संगीत की बात करें तो नाद वहां ध्वनि भर नहीं है। वहां लय है, ताल है और है जीवन का राग। सोचता हूं, संगीत की लय यदि जीवन मंे नहीं हो तो क्या यह संसार असार नहीं हो जाएगा! राग ही तो कराता है जीवन से अनुराग। 
बहरहाल, नाद से स्वर और स्वरों से है सप्तक। संस्कृत की धातु रंज् से बना है ‘राग’। माने रंगना। कल की ही बात है। पंडित मल्लिकार्जुन मंसूर को सुना। लगा, उनके गाये में पूरी तरह से रंग गया हूं। मीराबाई का जो भजन उन्होंने गाया है, उसके बोल हैं, ‘मत जा मत जा रे जोगी, पांव पड़ुंगी मैं तेरे’। गाया इसे ओरों ने भी है पर मल्लिकार्जुन मंसूर के स्वरों में यह सुनंेगे तो लगेगा तन-मन झंकृत हो उठा है। शब्दों की कोरी ताल निबद्धता ही वहां नहीं है, एक-एक गाये शब्द का अर्थ जैसे स्वर दर स्वर खुलता है। राग भैरवी में इसे गाते पंडित जी मीरा की भावना के सारतत्व की गहन अनुभूति कराते हैं। आरोह, अवरोह में किसी एक स्थान पर ले जाकर औचक जब वह ‘मत जा मत जा’ शब्दों के स्वर छोड़ते हैं तो अद्भुत सौन्दर्य रचाव होता हैं। यह अध्यात्म का सौन्दर्य है। लगता है, उनकी अंवेरी लय सदा के लिए मन में बस गयी है। भैरवी प्रातःकाल का राग है परन्तु पंडित मल्लिकार्जुन मंसूर के स्वरों में ‘मत जा जोगी’ को किसी भी समय सुनेंगे, मन करेगा उसे गुनें। एक-एक शब्द की गहराई मंे ले जाते वह स्वरों की अद्भुत पकड़ करते हैं। 
मल्लिकार्जुन मंसूर के आलमप्रभु, चैन्नबसव, अक्कामहादेवी जैसे संतों के वचनों का गान भी अंतर अकथ से हुलसित करता है। बसवन्ना की विनय-पत्रिका ‘हे प्रभु,/देह की डंडी बनाओ/तुम्बा हो सर का/नाड़ियों की तंत्री बने/अंगुलियों का मिजराब/साधकर अपने दो और तीस राग/मेरे हृदय को छेड़ो...’ सुनेंगे तो लगेगा आप किसी ओर जहां में चले गए हैं। सच! यह मसंूर ही हैं जिनका गान अर्थनिरपेक्ष होता सूक्ष्म से सूक्ष्मतर समाधि भंगिमा की ओर बढ़ता है। वह अपना सारा गान भगवान शिव को समर्पित करते हैं। मुझे लगता है, अन्तः और बाह्य जगत के तमाम संदर्भ उनके गान में समाहित हैं। धुन लगते ही हम जैसे उसमें रमने लग जाएंगे। 
बीकानेर के ऊर्जावान और समझ वाले अपेक्षाकृत युवा प्रकाशक प्रशान्त बिस्सा ने इधर सूर्य प्रकाशन मंदिर के तहत पंडित मल्लिकार्जुन मंसूर की आत्मकथा ‘रसयात्रा’ का प्रकाशन किया है। मूल कन्नड़ में लिखी ‘रसयात्रा’ बकौल अशोक वाजपेयी ‘तीर्थगायक की रसयात्रा’ है। मंसूर इसमें लिखते हैं, ‘ताल और राग के सटीक मिलाप से ही धीरे-धीरे राग-पुष्पित होते हैं।’  उन्हें सुनते हुए इसे गहरे से अनुभूत भी किया जा सकता है। 
‘रसयात्रा’ में एक जगह वह संगीत की मौलिकता पर कहते हैं, ‘परम्परा के सारतत्व पर अधिकार के बाद ही मौलिकता को प्रवाहित होना चाहिए।’ स्वयं पंडितजी ने तमाम अपने गान में यही तो किया है! वहां परम्परा के सारत्व पर अधिकार है परन्तु स्वयं उनकी सिरजी मौलिकता भी है। उनके गुरू मांजी खान साहब कहते, ‘हर कुजे नियामत’। माने हर पात्र में कुछ न कुछ प्रसाद जरूर होता है। इसकी गांठ बांधते उन्होंने संगीत में सबसे कुछ न कुछ ग्रहण किया परन्तु उसमें अपना मिलाते सहज आलाप के अद्भुत सुरीलेपन की सौगात हमें दी। ‘रसयात्रा’ में अपने गायन के बारे में बताते वह लिखते हैं, ‘तानपुरे पर स्वर सुनते ही मैं इस सांसारिकता से दूर एक अलग दुनिया में प्रवेश करता हूं। भौतिक उपस्थिति को भुलाकर मेरे मन की आंखे केवल सुर की लय को देखती है....मेरे लिए तो जिन्दगी खुद सुरों से सजी एक महफिल है।’ उन्हें सुनते, ‘रसयात्रा’ को पढ़ते औचक मुंह से यही तो निकलेगा ‘सच ही तो है!’

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