Saturday, November 3, 2012

...और चले गए साखलकर जी



कला मर्मज्ञ रत्नाकर विनायक साखलकरजी नहीं रहे! यह सूचना आहत करने वाली थी। ललित कला अकादेमी के निमंत्रण पर कला के एक व्याखान कार्यक्रम के अंतर्गत तब वाराणसी में था। सुनकर विश्वास ही नहीं हुआ। कल की ही तो बात है, इसी स्तम्भ में उनके कला चिंतन पर लिखा था। लगा, कलाओं में रमने, उन्हीं में बसने वाला हमसे यूं दूर कैसे जा सकता है! देह से भले वह चले गये परन्तु उनका कलाकर्म, चिन्तन तो सदा हमारे साथ रहेगा ही।
बहरहाल, भारतीय कला के अर्न्तनिहित में जाते यह साखलकरजी ही थे जिन्होंने कला चिन्तन में सदा ही बढ़त की। भारतीय चित्रकला, मूर्तिकला और तमाम हमारी लोककलाओं को समझ की अपनी दृष्टि दी। पाठ्यपुस्तकों के जरिए शिक्षार्थियों तक कला के सरोकार पहुंचाने का भी बड़ा  उपक्रम किया। हिन्दी में कला की पाठ्यपुस्तकों की बड़ी सीमा यह है कि उनमें अधिकतर पाश्चात्य कला दर्शन का ही रूपान्तरण है। ऐसे में यह साखकरजी ही थे जिन्होंने आधुनिक भारतीय कला को हिन्दी में मौलिक दृष्टि से लिखा परन्तु इस लिखे की कूंत कभी शायद हो ही नहीं पायी। साखलकरजी के साथ तो विडम्बना यह भी रही कि उनका चित्रकार और पाठ्यपुस्तक लेखक उनके कला आलोचक पर सदा भारी रहा। राज्य ललित कला अकादेमी ने चित्रकार के रूप में उन्हें कलाविद् की उपाधि से सम्मानित किया परन्तु कला आलोचना की उनकी दृष्टि का मूल्यांकन शायद सही ढंग से किसी स्तर पर नहीं हुआ। 
याद पड़ता है, हुसैन की भारतीय देवी-देवताओं को लेकर बनायी गयी कुछ आपत्तिजनक कलाकृतियांे को लेकर जब पूरे देश में बवाल मचा हुआ था, साखलकरजी ने उनकी कलाकृतियों के निहितार्थ में जाते तर्क सहित प्रचार की उनकी भूख को पाठकों के समक्ष रखा था। यही नहीं उन्हें पढंेगे तो पाठकों को बार-बार यह अहसास भी होता है कि जो उन्होंने लिखा उसमें कला के भारतीय दर्शन को गहरे से छुआ है। मसलन अजन्ता के कला वैभव, खजुराहो की नग्न प्रतिमाओं पर लिखते हुए उन्होंने शास्त्र, पुराणों के शिल्प मंतव्य भी गहरे से उद्घाटित किए हैं। मंदिरों पर यौन प्रतिमाओं को लेकर उनके भारतीय दर्शन पर जब भी जाता हूं, आनंदकुमार स्वामी का कला चिन्तन भी गहरे से मन में कौंधता है। मंदिरों में नग्न प्रतिमाओं, मिथुन आकृतियों को भारतीय कला में कभी गलत नहीं माना गया, इसलिये कि यह व्यक्ति को कुंठाओं से मुक्त करता है, पवित्रता से पहले कुंठाओं से मुक्ति जरूरी है। साखलकरजी कला के भारतीय दर्शन में जाते विष्णुधर्मोत्तर पुराण, भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के साथ ही शिल्पशास्त्र और तमाम दूसरे कला आख्यानों की गहराई को अपने लिखे में जीते। इसी से उन्होंने पाश्चात्य और भारतीय कला का अपने तई सांगोपांग मूल्यांकन किया और भारतीय कलाकारों पर जो लिखा उसमें रंग और रेखाओं की गहराई में जाते कला की सोच को व्यापक परिप्रेक्ष्य में हमारे समक्ष रखा। 
अज्ञेय के कला चिन्तन पर कभी प्रभात प्रकाशन ने वत्सल निधि के तहत हुए व्याख्यानों को संजोते एक पुस्तक का प्रकाशन किया था। परन्तु हाल ही सस्ता साहित्य मंडल ने सुप्रसिद्ध आलोचक कृष्णदत्त पालीवाल के संपादन मंे कला पर समय-समय पर लिखी अज्ञेय की टिप्पणियों को प्रकाशित किया है। उससे पता चलता है कि भारतीय कला पर अज्ञेय कितनी गहराई से सोचते थे। निर्मल वर्मा को पढते हैं तो उनके बरते शब्दों में कला ही कला बिखरी दिखाई देती है। क्या ही अच्छा हो, रत्नाकर विनायक साखलकरजी के कला चिन्तन पर एक संपादित पुस्तक ही कोई बड़ा प्रकाशक प्रकाशित करे। हिन्दी में कला आलोचना नहीं होने का रोना रोने वाले आखिर जाने तो सही कि हिन्दी कला आलोचना किस मुकाम पर है! 


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