Friday, November 9, 2012

दीपक ज्योति नमोस्तुते


पर्व-त्योंहार आखिर किसलिए मनते हैं! इसीलिए ना कि जीवन का उजास, उत्सवधर्मिता का नाद उनमें है। और दीपावली तो है ही उजाले की प्रतीक। सोचिए! अमावस्या के अंधकार को हरने ही तो जलता है, नन्हा सा एक दीप। 
दीप पर्व दीपावली अंतर्मन उजास का संवाहक है। मुझे लगता है भारतीय संस्कृति का यह अनूठा कला पर्व है। इस पर्व पर भीतर का हमारा सर्जक जाग उठता है। दीपावली इसीलिए तो हरेक के मन को भाती है कि इस एक पर्व में कलात्मक सृजन के भांत-भांत आयामों को हम अनायास छू लेते हैं। रंग-रोगन कराते कलाकार नहीं होते हुए भी घर के किसी कोने को अपने भीतर के कलामन से संवारने की दीठ आप मंे अनायास जगती है। गांवों मंे तो दीप पर्व से पहले ही घरों को गोबर से लिपने-पोतने का कला कर्म शुरू हो जाता है। मिट्टी और गोबर का मेल। उसमें हिरमिच और हल्दी का घोल। घर-आंगन में मंडते कलात्मक मांडणे।...और यही क्यों लक्ष्मी पूजा स्थल तक कुकुंम से लक्ष्मी के अलंकारिक पगलियों भी तो मांडे जाते हैं।...दीपकों की जो रोशनी घर-परिवार में होती है वह भी तो मिट्टी के आकर्षक दियों से ही होती है। कुम्हार की चाक से ढले मिट्टी के दीपक पानी से धोकर साफ करते हैं और फिर उनकी खूशबू के साथ यत्र-तत्र सर्वत्र उजास फैलता है।
दीप पर्व में जीवन को आलोकित करने का मंतव्य गहरे से निहित है। आज से नहीं। युग-युगों से। मुअन-जो-दड़ो की खुदाई से इंटो के घरों में दीपक जलाने की परम्परा ज्ञात हुई है और अंधेरी गुफाओं में निर्मित बारीक चित्रों को देखकर भी सहज यह अनुमान होता है कि दीपक तब भी थे। मुझे लगता है, सभ्यता और संस्कृति के अनहद नाद हैं दीपक। पंचतत्वों से एक अग्नि का प्रतीक दीपक। जन्म से लेकर मृत्य के बाद तक की रश्में निभाता दीपक। अंधकार से मुक्ति का आह्वान करता। मर्त्य में अमर्त्य दीपक। 
दीपक अंतर्मन प्रकाश की खिड़की खोलने का संदेश देते हैं। अभी बहुत दिन नहीं हुए, वाराणसी जाना हुआ था। काशी की एक सांझ गंगा में नाव में विचरते दीपमालिकाओं से साक्षात् हुआ। लगा, एक साथ पंक्तिबद्ध जलते दीपकों में जीवन की लय को गहरे से अंवेरा गया है। तभी मन में खयाल यह भी आया...अंधेरा नहीं हो तो इस रोशनी को क्या हम इस रूप मंे देख पाते! माने अंधकार में ही प्रकाश की शोभा है।...तो सृजन के लिए जरूरी है अंधकार। दिन के बाद रात न हो तो! यह दीपक ही है जो रात्रि के अंधेरे में अपने होने को जताता जैसे हमें अपने भीतर झांकने का यूं अवसर देता है। बनारस में गंगा आरती के अद्भुत दृश्य में रमते जैसे हम अपने होने की ही तलाश कर रहे थे। नाव पर बैठे गंगा आरती की दिव्यता और भव्यता में ही डूबे थे कि पास ही आ लगी एक और छोटी सी नाव। हाथ में मिट्टी के दीपक और घी से सनी बाती के साथ छोटे-छोटे बच्चे उन्हें खरीद गंगा मंे प्रवाहित करने का आग्रह कर रहे थे। हमने दीपक ले, बाती को प्रकाशित किया। जगमग दीपकों को जब गंगा में प्रवाहित किया तो लगा कुछ अनूठा अनायास ही हो गया है। पंक्तिबद्ध रोशनी बिखरते दीपक थोड़ी देर में ही पानी की एक लहर के साथ हमसे दूर चले गये।...परन्तु उनका उजास!  मन में जैसे अभी भी बसा हुआ है। 
कहीं पढ़ा हुआ, औचक जेहन में कौंध रहा है। निर्वाण समय बुद्ध शांत लेटे हुए हैं। उनका शिष्य आनंद विलाप कर रहा है, ‘हमें छोड़कर क्यों जा रहे हैं! अब कौन करेगा हमारा पथ प्रशस्त?’ बुद्ध के मुंह से निकलता है, ‘अप्प दीपो भव’ माने स्वयं अपना प्रकाश बनो। जलो ताकि आलोकित हो रूप। दीपावली में हम सब यही संकल्प लें। अपनी ज्योति आप बनें। ‘दीपक ज्योति नमोस्तुते।’ 


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