Friday, April 12, 2013

रंग-रेखाओं में शिव


सुखद अनुभूति माने सुंदर। सुन्दरता का अर्थ भद्र और कल्याण का भाव ही तो है। सौंदर्य की अवधारणा आनंदानुभूति में है। सौन्दर्य में  शुचि, शुभ और भद्र की समन्विति है। मंगल की भावना है। कलाओं का हेतु सौन्दर्य के यह भाव ही तो है। सृष्टि के पहले जब कुछ भी नहीं था। तब केवल शिव  था। सौन्दर्य था। कहा भी तो है, ‘न सन्नासच्छिव एव केवलः।’ माने सृष्टि के आदिकाल में जब केवल अंधकार ही अंधकार था, न दिन था न रात्रि, न सत् यानी कारण था न असत् यानी कार्य। तब केवल निर्विकार शिव  ही विद्यमान थे। शिव सोंदर्य   के संवाहक हैं। तमाम कलाओं के प्रेरक। संगीत-गीत, वाद्य एवं नृत्य के आदि देव। आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक अभिनयों के साथ-साथ गायन-वादन-नर्तन आदि सभी कलाओं के प्रयोक्ता भगवान शिव  ही तो हैं। इसलिए उन्हें ‘विद्यातीर्थं महेष्वरम्’ से भी अभिहित किया गया है।
बहरहाल, शिव  शक्ति  का घर बिन्दुनाद है। बिन्दुनाद से ही तो तमाम कलाएं बढत करती है। जवाहर कला केन्द्र में पिछले दिनों सिल्वी माहेष्वरी की भगवान शिव   कन्द्रित कला प्रदर्षनी का आस्वाद किया। लगा, रंगो और रेखाओं के अंतर्गत मूर्त-अमूर्त में भगवान षिव को कला में गहरे से जिया गया है। सिल्वी की कला की बड़ी विषेषता यह है कि वह कल्पनाओ के साथ भावनाओं के भव में रंग और रेखाओं को वीलीन करती है। ऐसा है तभी तो उसकी उकेरी आकृतियों में अंतर्मन संवेदनाओं का सूक्ष्म अंकन है। रंग है तो वह संवेदना से उपजे भीतर के निनाद का संवाहक है। रेखाएं हैं तो उनमें मन के सौन्दर्य की लय है।
सिल्वी के चित्र अध्यात्म भावों से लबरेज हैं। स्तुत्य देव की आराधना की राग वहां है परन्तु बहुत कुछ ऐसा भी है जो लगता है बगैर किसी प्रयास के स्वतःस्फुर्त है। वहां जो उकेरा गया है उसमें रंग-रेखाएं माध्यम जरूर है परन्तु उनका मूल आत्म की अभिव्यंजना है। चित्र है तो वहां संगीत है। भीतर का नृत्य है। नाट्य है और है जीवनानुराग। सिल्वी ने भोले भंडारी के कल्याण भावों को मन में बसाते। उनमें रमते-बसते किया है प्रदर्षनी में प्रदर्षित तमाम चित्रों का सर्जन। इसीलिए उसके चित्रों में रंग और रेखाएं होते हुए भी वें गौण हैं। उनमें निहित भाव वहां प्रधान है। सिल्वी का एक चित्र है जिसमें रंगों के बीच घंटी का प्रवाह है। नाद है और है रंगों की उत्सवधर्मिता। शिव  की यह सूक्ष्म सौन्दर्याभिव्यक्ति है। घंटी से निकलती ओंकार ध्वनि यहां जैसे रंग सजी सृष्टि नाद की संवाहक है। ऐसे ही एक और चित्र है जिसमें वृक्ष के नीचे ध्यान को संजोया गया है। चित्र और भी हैं जिनमें शिवलिंग, शिव  मंदिरों और शिव के  ध्यान-योग के बहाने भीतर उपजते भावों की अभिव्यंजना की गयी है। महत्वपूर्ण यह भी है कि अन्र्तनिहित सोच को रंगो से कैनवस पर जैसे पंख लगे हैं। इसीलिए तो सिल्वी के अध्यात्म प्रेरित इन चित्रों में औचक ही अनहद नाद का आभाष होता है।
सोचता हूं। यह भगवान शिव  ही हैं जो रावण रचित तांडवस्त्रोत पर नाच उठे थे। शिव  ने चैदह बार डमरू बजाया। पाणिनी ने इसी से तो व्याकरण की रचना की। तमाम हमारी कलाएं शिव  के रूप का ही तो विस्तार है।  शिव अनन्त है। नटराज काल-संहारशिव केवल अपने वैभव, शक्ति, शांति, संयम और ऐष्वर्य में ही सर्वोत्तम नहीं है, वे समय और स्थिति के आध्यात्मिक अतिक्रमण के भी प्रतीक हैं। इसीलिए तो वह महादेव हैं। जहां कहीं भी ‘ईष्वर’ अथवा ‘ईष’ शब्द बगैर किसी विषेषण के आया है उसका अर्थ शंकर ही तो है।...संसार में व्याप्त कला सौन्दर्य के स्त्रोत। शिव शंकर!

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