Friday, April 5, 2013

लोक कलाओं से अपानापा


कलाओं का सूक्ष्म और बहुत से स्तरों पर मार्मिक विवेचन कहीं है तो वह हमारी लोक संस्कृति में है। इसलिए कि सांस्कृतिक परिवर्तनों के साथ उसका बिगसाव हुआ है। राजस्थान की ही बात करें। हमारे गांव आंज भी लोक के उजास में ही रचे-बसे हैं। कभी लोक कला मर्मज्ञ कोमल कोठारी ने लोक से जुड़ी कलाओं के अनमोल खजाने की तह में जाते उसका आस्वाद हमें भी कराया था। न जाने तब कहां-कहां से वह कलाओं और कलाकारों को ढूंढ कर लाए और उनसे हमारा नाता कराया। 
इधर उनकी इसी परम्परा को बीकानेर के डाॅ. श्रीलाल मोहता आगे बढ़ा रहे हैं। कुछ दिन पहले जब बीकानेर जाना हुआ तो लोक कलाओं को सहेजने, लुप्तप्रायः होती जा रही कलाओं और उनसे संबंधित कलाकारों की तलाश कर उन्हें आगे बढ़ाने के उनके कार्य को गहरे से जाना। लगा, अपनी ही धुन में संलग्न मोहता ने लोक की हमारी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर को भावी पीढि़यों के लिए संजोने का महत्ती कार्य किया है। लोक संस्कृति का वास्तविक स्वरूप लोक के इतिहास बगैर संभव भी कहां है! सो मोहता ने बड़ा काम यह भी किया है कि लोप होती कलाओं  पर विमर्श की राहें खोली और ‘मरू-परम्परा’ संस्थान के जरिए राजस्थान के सुदूर क्षेत्रों में स्वयं पहुचकर लोक कलाओं को संजोया। लोक कलाकारों के रूप में विरासत के अनमोल मोती ही तो उन्होंने सहेजे हैं!
डा श्रीलाल मोहता ने कभी ‘मरू लोक संस्कृति कोष’ लेखन का महत्ती कार्य भी किया। इस कोश में व्यक्ति है तो व्यक्ति से जुड़े संस्कारों की सौरम भी है। संस्कृति के तमाम उपादान भी हैं। बड़ी बात यह भी है कि जो कुछ उन्होंने इस कोष में संजोया है वह केवल वर्णात्मक ही नहीं है, उसमें मोहता का लोक में बसा मन भी है। कहें, उन्होंने लोक को इतिहास नहीं रखते उसे आधुनिक समय संवेदना से भी जोड़ा है। इस कोश के साथ ही उन्होंने बीकानेर परिक्षेत्र में विकसित भारतीय चित्रकला परम्परा की विशिष्ट शैली मथेरण कलम से भी नई पीढ़ी को रू-ब-रू कराने का महत्ती कार्य भी किया है। बीकानेर चित्रशैली के रूप में अब तक मुगल चित्रकला की ही पहचान होती रही है जबकि मरूभूमि की संवेदना, परिवेश और स्थानीय रंगो के साथ लोक जीवन से जुड़ी बीकानेर की मूल शैली मथेरण कलम ही है। ‘मथेरण कलम’ से जुड़े चंद बचे कलाकारों से उन्हांेने स्वयं संवाद किया और एक तरह से लोप हो चुकी इस चित्रशैली को प्रकाश में लेकर आए। डाॅ. मोहता के साथ कुछ दिन पहले ‘मरू-परम्परा’ संस्थान में जाना हुआ तो उनके द्वारा किए लोक संस्कृति संरक्षण के उन कार्यों को भी जाना जो बगैर किसी को बताए वह अपने तई चुपके से करते रहे है। मसलन गांवों में विवाह, उत्सव पर बनने वाले लोक चित्र, संस्कारों से जुड़े मांडणे और अब केवल कुछ ही गांवों में बचे ख्याल, रम्मतों आदि के कलाकारों से संजोयी विशिष्ट बातों का इतिहास भी उनके पास एकत्र है।  
मुझे लगता है, लोक संस्कृति का उनका कर्म लोक साक्ष्यों का आधार तो लेता है परन्तु उसमें चिन्तन की संवेदना का राग भी है। लोक संस्कृति, लोक मुहावरों, लोक साहित्य को इतिहास के नवीन स्त्रोत के रूप में विकसित करने के उपक्रम के तहत उन्होंने ऐसे ऐसे कलाकारो को ढूंढ निकाला जो अन्यथा बिसरा दिए गए थे। जमाली बाई की मांड को परखा। उसे मंच दिया। हेला, ख्याल, हरजस, वाणी के सुदूर गांवो में बसने वाले कलाकारों के बीच गए और उन्हें ढूंढ निकाल उनके लिए कला प्रस्तुति के अवसर तलाशे। वह लोक के मौखिक और लिखित दोनों ही स्त्रोतों पर जाते हैं तो लोक संस्कृति के ऐसे मर्मज्ञ भी हैं जो लोक की बौद्धिक प्रक्रिया को संस्कृति के चिन्तन में रूपान्तरित करते हैं। कहें, मोहता व्यक्तित्व की अपनी अंतःप्रक्रिया में निरंन्तर सौन्दर्य की सर्जना करते लोक का आलोक लिए हैं।

राजस्थान पत्रिका समूह के "डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार  एडिट पेज पर प्रकाशित स्तम्भ "कला तट" में 5 अप्रैल को प्रकाशित
आप इसे इस लिंक पर भी पढ़ सकते हैं -
http://dailynewsnetwork.epapr.in/c/950551

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