Friday, April 26, 2013

सौन्दर्य की अर्थ अभिव्यंजना


छायांकन वह कला है जिसमें प्रकृति प्रदत्त चीजों को ज्यों का त्यों ही प्रस्तुत ही नहीं किया जाता बल्कि प्रकृति के प्रस्तुत गुणों में से उकेरे जाने वाली विषय-वस्तु की एक प्रकार से अन्विति की जाती है। कहूं, विषय में निहित आंतरिक सौन्दर्य, सौन्दर्य के किसी अंश को अनुभूत करते कैमरे की तीसरी आंख से उसे छायाकार परोटता है।  ऐसा करते वह क्षण में परिवर्तित घटना की गति को पकड़ते यथार्थ का अर्थान्वेषण ही तो करता है!  
बहरहाल, बतौर अतिथि सम्पादक ललित कला अकादेमी की पत्रिका ‘समकालीन कला’ के लिए जब देष के ख्यातनाम कलाकारों की कलाकृतियों के छायांकन की तलाष कर रहा था, दिनेषकुमार ने छायाचित्रों के चयन में बेहद मदद भी की। तभी आग्रहवष उनके छायाचित्रों के भव में भी गया। लगा, उनके छायाचित्रों में रंगों और प्रकाश का सधा प्रयोग आकृतियों का अनूठा टैक्सचर निर्मित करता है। किसी कलाकृति की मानिंद। ऐसे में कैमरा जो दृश्य लेता है, एक प्रकार से संवेदना की उनकी आंख उसे फिर से गढती है। दृश्य की अनंत संभावनाओं में जाते वह उसके किसी एक हिस्से को पकड़ते उस पर कैमरे को फोकश करते हैं। ऐसा करते वह वहां उभरी छाया और प्रकाश की अपने तई कैमरे से अनूठी अर्थ अभिव्यंजना भी करते हैं। चट्टानों, शिलाओं और पत्थरों की प्रकृतिप्रदत्त संरचनाओं के शिल्पायन पर जाते वह वहां फैले प्रकाश और छाया को अपने कैमरे से पकड़ यथार्थ मंे जो दिख रहा है उससे भिन्न कलात्मक सौन्दर्य दिखाते हैं। ऐसा करते बहुतेरी बार चट्टान या पहाड़ के किसी कोने, पत्थर में छाया-प्रकाश से जो टैक्सचर निर्मित होता है-उसकी सूक्ष्म सौन्दर्य व्यंजना से वह देखने वालों को रू-ब-रू कराते हैं। दिनेश के ऐसे ही छाया-चित्रों से गुजरते यह अहसास भी बार-बार होता है कि हम अतीत के किसी कला काल मंे प्रवेश कर गए हैं। इस काल में गुफा और शैल चित्रों के अनूठे दृश्य चितराम अनायास उभरते प्रतीत होते सभ्यता और संस्कृति की हमारी संवेदना को जैसे स्पर्श करते हैं। अंधेरी गुफा, गुफा में कहीं से छनता आता प्रकाश और झिल्लीनुमा उभरती संरचना में रेत के रेगिस्तान के पद्चिन्हों की आहट सरीखी भी कुछ होती है। माने वहां जो दृश्य है, उससे बहुतेरे दूसरे दृश्यों की स्मृतियों से भी औचक अपनापा होता है।
दिनेश दृश्य में भी किसी एक आयाम को केन्द्र में रखते उसके संपूर्ण रहस्य को आंखों के समक्ष जैसे खोलते हैं। मसलन उनके एक छाया-चित्र में स्त्री-पुरूष आकृतियों की छाया है। विपरीत प्रकाश में लिए इस छायाचित्र में स्त्री-पुरूष साथ-साथ जा रहे हैं। आप उनके पीछे हैं, अंधेरे में परछाई भर उभरती है, बाकी सब में प्रकाश है। यहां आकृतियों पर पड़ते प्रकाश के बिम्ब में धुंधलाती देहों के साये कुछ नहीं कहते हुए भी बहुत कुछ कहते हैं। छायाचित्र में अब जबकि डिजिटल कैमरे में सब कुछ आॅटोमेटिक होता है, यू देखा जाए तो करने को कुछ नहीं होता। दृश्य को कैमरा जैसा चाहे आपके समक्ष रख सकता है परन्तु व्यक्तियों, प्रकृति, चीजों में प्रकाश के साथ होते परिवर्तनों को आप कैसे लेते हैं, कैसे किसी दृश्य में संवेदना की तलाश करते हैं-यह तो आपके पास की कला दीठ से ही आपको मिल सकती है। दिनेश के पास इस कला दीठ की कोई कमी नहीं है, इसीलिए वह यथार्थ में जो दिख रहा है, उसके भीतर निहित कला आयामों को गहरे से अपने कैमरे से छूते है। 
मुझे लगता है, प्रकृति और चीजों को उसके सर्वोत्तम रूप में पकड़ भीतर के अपने कलाकार से उसे जीवंत करते हैं दिनेश के छायाचित्र। उनके चित्रों का आस्वाद करते ही बहुत कुछ लिख गया हूं परन्तु छायाकार जो अभिव्यक्ति करता उसे सच में क्या व्यक्त किया जा सकता है! 


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