Friday, April 19, 2013

संवेदना संचार की संवाहक कलाएं


कलाओं पर काल का वश नहीं है। कहने में यह बात कुछ विरोधाभाश  लिए हो सकती है कि आज जो समकालीन है कल वह क्या इतिहास  नहीं होना है! परन्तु यहां गौर करने की बात यह है कि कलाओं की अन्तर्निहित शक्ति उसका काल नहीं बल्कि उसके सर्जन का दृष्टिकोण तथा चीजों और विचारों के पीछे की मौलिक दृष्टि होती है।भले ही काल विशेष  के बाद किसी कलाकृति का संदर्भ बदल जाए परन्तु उसमें निहित विचार और दृष्टिकोण की स्थापना सदा अपना अस्तित्व बचाए रखती है।
कहूं, व्यक्ति में संवेदनाओं का संचार कलाएं ही कराती हैं। संवेदनाएं यदि छीजती है तो इसका एक अर्थ यह भी है कि हमारा कला-बोध शून्य है। 
भारतीय दृष्टि जीवन में  सृजन से ही तो जुड़ रही है। वहां जीवन की समग्रता पर वहां विचारा गया है। जाहिर सी बात है, कला के परिप्रेक्ष्य में उसमे संगीत है, नृत्य है, चित्रकला है और तमाम प्रकार की दूसरी कलाएं भी सम्मिलित हैं। भरत मुनि के नाट्यषास्त्र का नाम भले नाटक से संबद्ध हो परन्तु उसमें सभी कलाओं के अर्न्तसंबंधों की परिणति में हर कला की अपनी स्वायत्ता है। और यह कलाएं ही हैं जो जीवन के अव्यक्त को व्यक्त करती हैं। जो व्यक्ति में संवेदना को जीवित रखती है। इसीलिए मानव मूल्यों के लिए जीवन में कलाओं का होना जरूरी समझा गया है। शास्त्रों में तो इसीलिए बगैर कलाओ ंके मनुष्य को पषुतुल्य समझा गया है।
बहरहाल, संगीत को ही लें। आलाप के अंतर्गत राग का हल्के हल्के विस्तार होता है। इस विस्तार में ही पूरा एक भाव लोक तैयार होता है। ठीक ऐसे ही रंगमंच के साथ है। वहां किसी पात्र सें संबंधित दृष्य में विस्तार होने के बाद ही अगला दृष्य मंचित होता है। नृत्य में दृष्टि, हाव-भाव आदि की भंगिमाएं ही उसका विस्तार करती है। यही बात चित्रकला के साथ भी है। रंग और रेखाएं बढ़त करती है। इसमें ही कैनवस पर मूर्त और अमूर्त चित्र की परिणति होती है। हर कला अपने रूप में सौन्दर्य और श्रेष्ठता का वरण दूसरी कला के मेल से करती है। सुखद जीवन का मंत्र भी तो यही है। सबके साथ तालमेल। 
...और कलाएं संवाद और सहकार का ही तो नाद करती है। विडम्बना यह है कि इधर कलाएं कलाकारों से ही नहीं आम जन से भी निरंतर दूर होती जा रही है। भूमंडलीकरण ने बाजार को अंतिम मंजिल जो बना दिया है! संगीत, नृत्य, नाट्य और चित्रकलाएं जब बाजार की वस्तु बनेगी तो फिर जीवन में संवेदषीलता भी कहां बची रह जाएगी! सोचने की बात यह है कि आप-हम कलाओं के लिए क्या कर रहे हैं। हमारा कलाओं के बिगसाव में क्या योगदान है। कला प्रस्तुतियों में क्या हम पहुंचते हैं! कलाओं के संरक्षण में क्या किसी स्तर पर हम योगदान देते हैं! मूलभूत प्रष्न यही तो हैं। 
कला बोध के लिए जरूरी यह भी है कि शिक्षण संस्थाओं में आरंभ से ही बच्चों में सांस्कृतिक कलाओं के संस्कार दिए जाएं। समाज की नींव वहीं से तो तैयार होती है। घरों में इन संस्कारों पर ध्यान दिया जाए। स्वैच्छिक संस्थाएं इसके लिए अधिक से अधिक आगे आए। बहुतों को यह जानकार अचरज हो सकता है कि स्पिकमैके की स्थापना कभी आईआईटी दिल्ली के प्रोफेसर किरण सेठ ने की थी। सरकार व कॉरपोरेट जगत के अर्थ सहयोग से यह संस्था आज देषभर में शास्त्रीय संगीत व कलाओं के आयोजन करती है। स्पिकमैके ने वह काम किया है जो प्रतिवर्ष करोड़ों रूपये, बहुतेरी संस्थाएं स्थापित करके सरकार नहीं कर सकती। इस तरह के व्यापक प्रयास सभी स्तरों पर होने जरूरी है। इसी से कलाएं बची रह सकती है। संवेदनाएं बची रह सकती है।


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