Friday, May 10, 2013

संस्कारित सुरों के गान का बिछोह



संगीत माने वह ध्वनि जो रस की सृष्टि करे। स्वर और लय की कला ही तो है संगीत। नाद के चार भाग हैं-परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी। ध्वनि की तरंग ही तो है नाद। सुनते हैं तो मन करता है इसी से जुड़ें।... और धु्रवपद तो नाद ब्रह्म है। आध्यात्मिकता का गान। सुनते हुए असार संसार का रहस्य जैसे समझ आने लगता है। कल की ही बात लगती है, उस्ताद जिया फरीदुद्दीन डागर को साक्षात् गाते हुए जब सुना था तो लगा संगीत के उजास को गहरे से अनुभूत कर रहा हूं। अब जब वह नहीं है, नाद ब्रह्म के उस महान उपासक के गान की यादें ही मन में घर कर रही है। मन में गहरा अवसाद भी है। इस बात का कि पहले रूद्रवीणा वादक असद अली खां साहब, उसके बाद रहीम फहीमुद्दीन डागर और अब उस्ताद जिया फरीदुद्दीन डागर... धु्रवपद का जैसे पूरा एक युग देखते ही देखते हमारी आंखों से ओझल हो रहा है। 
सोचता हूं, यह डागर घराना ही है जिसने धु्रवपद की परम्परा का बिगसाव ही नहीं किया बल्कि उसे अपने तई सहेजा और निरंतर संरक्षण भी किया। कहीं पढ़ा हुआ मन में कौंध रहा है। डागर माने पथ। और डागर वाणी यानी पथ को प्रदर्शित करने वाली वाणी।...तो इस अर्थ में डागर घराने ने धु्रवपद का देश में पथ ही तो प्रदर्शित किया है। नाद की रहस्यमयी महिमा धु्रवपद में ही है। उस्ताद जिया फरीदुद्दीन डागर की तीनों सप्तकों से युक्त लयकारी का गान विभोर करता था। वह गाते तो लगता संगीत जैसे बज नहीं रहा, जैसे रचा जा रहा है। शब्दों के मौन में वह जैसे किसी और को नहीं अपने आपको ही संबोधित करते। इसीलिए उनका गान किसी और के लिए नहीं स्वयं अपने लिए ही होता था। मुझे लगता है, उनका गान संगीत की आध्यात्मिकता का गान है। कभी रूसी कवि अलेक्जेंडर ब्लोक ने कहा था, ‘संगीत ने संसार को रचा है।’ सोचें जरा कि संगीत के स्वर और लय यदि जीवन में नहीं हो तो क्या इस संसार की कल्पना की जा सकती है!
बहरहाल, उस्ताद जिया फरीदुद्दीन का धु्रवपद गान सुरों का भव्य लोक निर्मित करता था। ऐसा स्थापत्य जिसमें सौन्दर्य ध्वनित होता था। मौन जहां गुंजरित होता था। शब्दों का उजास जहां अनुठा भावलोक निर्मित करता था। सच! उनका गान गंभीर, उज्ज्वल गान था। समय को अतिक्रमित करता। निस्संग। विराट स्पेस रचता। घराने में आबद्ध परन्तु उसकी बढ़त करता। सुरों को संस्कारित करता। गमक का तो उनका कोई जवाब ही नहीं था, भले वह कम गाते थे परन्तु स्वरों का विशिस्ट निभाव और शब्दों का  गंभीरता से उचारण अद्भुत था! गान  की हमारी परम्परा का पोषण करता हुआ। उसे आगे बढ़ाता हुआ। अनन्त का रूपक। नाद ब्रहम का गान। एकान्त का आलाप। उनका धु्रवपद संगीत भर नहीं था बल्कि ज्ञान का संग्रह है। वह जो गाते जीवन की अद्भुत सुर साधना ही तो थी। 
देश में युवापीढ़ी को शास्त्रीय संगीत की हमारी जड़ों से जोड़ने का बड़ा कार्य इस समय स्पीक मैके संस्था द्वारा किया जा रहा है। बहुतों को यह जानकर हैरत हो सकती है कि इस संस्था के संस्थापक प्रोफेसर किरण सेठ नें कभी न्यूयार्क में उस्ताद जिया फरीदुद्दीन डागर का गान सुनकर ही इस संस्था को स्थापित करने का निर्णय अपने मन में लिया था। यह तब की बात है जब सेठ आईआईटी खड़कपुर से शिक्षा प्राप्त कर आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका चले गए थे। न्यूयार्क में उन्होंने उस्ताद जिया फरीदुद्दीन डागर का गान सुना और बस वहीं से वह शास्त्रीय संगीत में इस कदर रमे कि 1979 में बाकायदा युवाओं को अपनी ही तरह शास्त्रीय संगीत से जोड़ने के लिए ‘सोसायटी फॉर द प्रमोशन ऑफ इंडियन क्लासिकल म्यूजिक एंड क्ल्चर अमगस्ट यूथ (स्पीक मैके) की स्थापना कर डाली थी। आज यह संस्था देश-विदेश में शास्त्रीय संगीत की हमारी जड़ों को सींचने का महत्ती कार्य ही तो कर रही है।
बहरहाल, उस्ताद जिया फरीदुद्दीन डागर ने संगीत की शिक्षा अपने पिता उस्ताद जियाउद्दीन खां साहब से प्राप्त की थी। पिता से धु्रवपद और वीणा वादन में प्रवीण होने के बाद उन्होंने धु्रवपद की अपनी विरासत का विस्तार करते बेहतरीन शिष्य तैयार किए। गुंदेचा बंधु, ऋत्विक सान्याल, उदय भावलकर उन्हीें के शिष्य हैं।

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