Friday, May 17, 2013

नाट्यकला में समय संवेदना


नाट्य वेदों से उपजी कला है। ऋग्वेद के सूत्रों में आए उर्वशी और पुरूरवा के संवाद इसी के तो गवाह है! भरतमुनि रचित नाट्यशास्त्र में आया भी तो है,  ऋग्वेद से कथोपकथन, सामवेद से गान, यजुर्वेद से अभिनय और अथर्ववेद से रस लेकर ही नाटक का निर्माण हुआ। संगीत, नृत्य, चित्रकला आदि तमाम कलाओं का कहीं मेल है तो वह नाट्यकला में ही है।
बहरहाल, देश में नाट्य की परम्परा निरंतर विकसित होती रही है परन्तु एक दौर के बाद हिन्दी रंगमंच जड़ता का शिकार भी हुआ है। कहीं किसी एक नाटक का सफलतम प्रदर्शन हो जाता है तो नाट्य निर्देशक उसी नाटक की प्रस्तुतियों के लिए टूट पड़ते हैं। ‘अंधायुग’, ‘अंधेर नगरी’, ‘आषाढ का एक दिन’, ‘खामोश अदालत जारी है’ से आगे अभी भी हिन्दी रंगमंच कहां बढ़ पाया है। हालांकि जयपुर में नाट्य मंचन की परम्परा खासी समृद्ध है परन्तु जब कभी नाटक देखने जाता हूं, नाटक देखने आने वाले वही चिर-परिचित चेहरे दिखाई पड़ते हैं। माने एक विशेष वर्ग से इतर जयपुर का नाटक भी दर्शक जुटा नहीं पाया है।  ऐसे में रवीन्द्र रंगमंच पर नाटककार अर्जुनदेव चारण के नाटक ‘जमलीला’ के मंचन ने इधर मन में कुछ आश जरूर जगायी है। रंगमंच के बिगसाव की बहुतेरी संभावनाओं को उनके नाटक देखते महसूस किया। लगा, दर्शकीय लिहाज से कुछ नया चाहें तो हो सकता है।
अर्जुनदेव चारण मूलतः कवि हैं। पर नाटककार के साथ वह गहरी सूझ के नाट्य निर्देशक भी हैं।  ‘जमलीला’ मंचन वाले दिन दूरभाष पर उन्होंने आग्रह कर उसे देखने का न्योता दिया। नाटक की रिहर्सल के दौरान उनके साथ ही बैठकर नाटक के कुछ अंश देखे तो लगा, रंगकर्म को वह गहरे से जीते हैं। ‘जमलीला’ में उन्होंनंे दर्शकीय लिहाज से नाट्य संप्रेषण के सधे प्रयोग किए हैं। मसलन इसमें कथा में यमलोक का रूपक रचते वह आधुनिक समय की विद्रुपताओं, विषमताओं पर हास्य मिश्रित करारा व्यंग्य करते है। नाटक के दृश्य देखते जेहन में सवाल उभरते हैं, लोकतंत्र में सत्ता की जवाबदेही जनता की है तो फिर गलत चुनाव के लिए दोष तंत्र को क्यों? पर सवाल यह भी है कि प्रजातंत्र में सही चुनाव के लिए क्या आम जन की सोच स्वतंत्र है? प्रश्न और भी हैं। उनके पार्श्व में बुने घटनाक्रम में दृश्य दर दृश्य नाटक बहुतेरे स्तरों पर उत्तेजित करता बहुत कुछ सोचने को विवश करता है। बकौल अर्जुनदेव उनका यह नाटक ‘भूतों के द्वारा कही गयी मानवीय कथा है।’ अर्जुनदेवजी ने इसमें भूतों के सरदार, यमराज, चित्रगुप्त, विष्णु, नारद आदि पात्रों के जरिए वर्तमान विद्रुपताओं,  व्यवस्था प्रसूत भ्रष्टाचार, बेईमानियों का सांगोपांग चितराम किया है। 
नाट्य के दृश्य आस्वाद करते अनुभूत करता हूं, नाट्य चिंतन और नाट्य प्रदर्शन में अर्जुनजी का गहरा हस्तक्षेप है। ‘जमलीला’ की कथा बतियाते वह पात्रों की संवाद अदायगी और भावाभिनय को भी बारीकी से जैसे खंगाल रहे थे। नाटक में दर्शकीय संप्रेषण के उन्होंने महत्वपूर्ण सूत्र तलाशे हैं। ऐसे जिनमें मिट्टी की सौंधी महक हैं। इस महक को नाट्य के दृश्यों, पात्रों द्वारा बोले गये राजस्थानी-हिन्दी संवादों में गहरे से अनुभूत किया जा सकता है। नाट्य आस्वाद करते लगता यह भी है कि हम अपने परिवेश से कहीं जुदा नहीं है। नाटक नहीं, बल्कि आस-पास के किसी दैनिन्दिनी घटनाक्रम से हम रू-ब-रू हो रहे हैं। अर्जुनदेवजी को मंचीय व्याकरण की भी गहरी समझ है। इसीलिए यमलोक के रूपक में वह नाटक की कलात्मकता के साथ वैचारिक भाष्य के साथ आधुनिकता के सरोकारों का सहज रूपान्तरण करते हैं। 
बहरहाल, ‘जमलीला’ के मंचीय दृश्यों का आस्वाद करते ब.व. कारन्त का कहा औचक ही याद आता है, ‘नाटक सच्चाई की खोज है। उसका अनुसंधान है।’ सच ही तो है! ‘जमलीला’ के बहाने अर्जुनदेवजी ने लोकतंत्र, जनता, चुनाव के बहाने जीवनमूल्यों मंे तेजी से आ रहे बदलावों का अपने तई अनुसंधान किया है। किसी नाटककार की सांस्कृतिक रचना प्रक्रिया आखिर यही तो है! 

"डेली न्यूज़" में प्रति सप्ताह प्रकाशित  लेखक के स्तम्भ "कला तट" में इसे आप यहाँ देखें-
http://dailynewsnetwork.epapr.in/c/1093001

1 comment:

सुनील गज्जाणी said...

namskar
aap ke blog pe aana achcha laga . sadhuad