Saturday, May 25, 2013

नृत्य छवि का सार्वभौम


नद् धातु से निस्पन्न है नाद। माने अव्यक्त शब्द। उत्सवधर्मिता का नाद आखिर जीवन में संगीत, नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं से ही तो है। कल की ही बात है। श्रुतिमंडल की ओर से आयेाजित आठवे रघु सिन्हा स्मृति समारोह में सोनल मानसिंह की नृत्य प्रस्तुति हुई। सुबह समाचार पत्रो के आस्वाद में नृत्यमय देवी रूपों की उनकी प्रस्तुति का ही गुणगान था। पर सच में क्या सोनल मानसिंह ने अपनी इस प्रस्तुति में नृत्य किया? कथासृत्रों में नृत्य सरीखा अहसास कराना और किसी कथा को नृत्य में जीना दोनों अलग-अलग है। इधर हो यही रहा है। भले उस प्रस्तुति को सोनल मानसिंह की नृत्य प्रस्तुति कहा जाए परन्तु नृत्य का सर्वांग वहां कहां है! हां, नृत्य के भीतर की भंगिमाएं वहां है। भाव है परन्तु देह की गति, लोच कहां से आए! और नृत्य तो है ही देह से देह की गत्यात्मक यात्रा। माने नृत्य करते नृत्यंागना या नर्तक खुद कहीं नहीं होता, उसके भीतर की तमाम सर्जना देह में रूपान्तरित हो जाती है। 
बहरहाल, एक वय के बाद देह की थिरकन मंद पड़ जाती है। नृत्य की मति होती है परन्तु गति कहां से आए! और गति के बगैर जोश नहीं होता। बगैर इसके नृत्य का होना न होना एक ही है। इधर हो यही रहा है। सोनलजी की ही तरह अधिक वय की अधिकांश नृत्यांगनाएं नृत्य के नाम पर कथाओं की नाट्य प्रस्तुतियां कर रहीं है। कोई कहे हमने वहां भरपुर रस पाया तो रस तो नाट्य में भी होता ही है ना! नृत्य क्या है? मानवीय अभिव्यक्तियों का गत्यात्मक रसमय प्रदर्शन। सार्वभौम कला है यह। ऐसी जिसे देखते हुए भी अंग प्रत्यंग औचक थिरकने लगते हैं। देह की सुंदरतम अभिव्यक्ति। एक प्रकार का उत्सव। देह से देह की यात्रा का उत्सव। भले नृत्य में कथा का रूपक कुछ भी बने परन्तु भीतर का अरूप भी सज-धज कर इसमें देह से प्रकट हो ही जाता है। 
सोचता हू, देह से परे क्या नृत्य हो सकता है! फिर क्यों कर हो ऐसा प्रयास। सोनल मानसिंह के नृत्य का आरंभ से ही कायल रहा हूं। वह नृत्य में अंग-प्रत्यंग के साथ सदा ही भावों का अनूठा रस बिखेरती रही है परन्तु इधर बतौर नृत्य जो सामुहिक प्रस्तुति वह करती हैं, उसमें कथा का ही उत्स होता है, नृत्य का नहीं। प्रस्तुति का मोह ही है उनसे यह सब करवाता होगा परन्तु नृत्य आस्वादक मन उनकी इस सर्जना से कहां संतुष्ट हो पाता है। नृत्य का मायना आखिर भाव भंगिमाओं का प्रदर्शन ही तो नहीं है, देह से उनको जीना भी है।  
बहरहाल, संगीत, नृत्य, नाट्य, चित्रकला, छायांकन को मैं ‘रंग नाद’ प्रस्तावित करता हूं। रंग के साथ नाद जरूरी है। नृत्य में देह साथ नहीं दे तो फिर वहां नाद तो होगा परन्तु रंग गायब होगा। और नाद तभी अंतर्मन को भाता है जब उसमें रंग माने उत्सवधर्मिता का उजास हो। बाहर का ही नहीं अंदर का नाद भी उससे ही बजता है। वही तो है रंग-नाद।  अंर्तध्वनि का प्रतीक। यह बजाया नहीं जाता फिर भी परमानंद रूप में बज पड़ता है। सधे हुए वाद्य वृंद की भांति। ...तो नृत्य में गत्यात्मकता होगी और देह का गान होता तभी ना वह बजेगा! रंग-नाद का मूल स्त्रोत आखिर भीतर की हमारी कला आस्वादक चेतना ही तो है! यह चेतना ही अंतर के आनंद की अनुभूति कराती है। शब्द और अर्थ भी कलाओं की हमारी इस रसानुभूति के ही अधीन हैं। इसी से पूर्व का विसृजन हो नवीन का निर्माण होता है। नृत्य कला में नवीन का निर्माण नए कलाकारों से होगा। उनकी नृत्य प्रस्तुतियों से होगा। कथाओं की भाव भंगिमाओं से नहीं। सोनलजी नृत्य कला की देश की विरल प्रतिभा है। क्या ही अच्छा हो, अपने जैसी ही विरल नृत्य प्रतिभाओं का वह संभावनाओं का खुला आकाश रचे।