अमरेश कुमार का संस्थापन |
कुछ दिन पहले पटना में राष्ट्रीय कला शिविर में व्याख्यान के लिए जब जाना हुआ तो वहीं अमरेश की कला से साक्षात् का सुयोग हुआ। लगा, शिल्प में वह जो कुछ निर्मित करते हैं उसमें दृष्टा एवं दृश्य का भेद मिट जाता है। मूर्तिशिल्प ही नहीं संस्थापन में भी वह परम्पराओं के साथ लोक से जुड़ी संवेदना में माटी की सौंधी महक का सुवास कराते हैं। एक शिल्प श्रृंखला है, ‘गर्भगृह’। देखते मन में विचार आने लगे हैं, मंदिर के बाहरी मंडप में एक नहीं अनेक दीप जलते हैं परन्तु गर्भगृह में तो एक नन्हा दीप ही उजास का संवाहक होता है। अमरेश कुमार की ‘गर्भगृह’ शिल्प संरचनाएं ऐसी ही हैं। इनमें भक्ति, ज्ञान और लोक से जुड़ी संवेदना का त्रिक है। इनमें अतीत को जैसे गुना और फिर गहरे से बुना गया है। टेराकोटा में मिट्टी को मथते, उसमें रमते लोक संस्कृति के जीवंत चितरामों में ही नहीं काष्ठ, धातु और पाषाण की उनकी संरचनाएं सोए मन को जैसे जगाती है। राग-विराग के अनगिनत संदर्भ और ‘चरैवेति’ चरैवेति’ का हमारा जीवन गान लिए। मुझे लगता है वह आकृतियांें में अमूर्त की अनंत संभावनाओं की दीठ को प्रेरित करने वाले कलाकार हैं।
बहरहाल, धातु का उनका एक शिल्प है ‘काल’। समय की अद्भुत व्यंजना! अंधकार हरती दीपक ज्योति! चहुंओर अंधेरे का परिवेश और उसके बीच स्थित जलती सौम्य जोत। जड़ का जीवंत आभास। बहुत कुछ स्पष्ट और थोड़ा अस्पष्ट। निकट भी पर उतना ही दूर भी। ‘खड़ाउ’ का संस्थापन भी कुछ इसी तरह का है। काष्ठ शिल्प की पुस्तक पीठियां और पास बना लकड़ी का प्रवेश आवरण या कहें द्वार। इसमें चहुं दिश अलंकृत खड़ाउ हैं। उड़ती सरीखी। मोक्ष की कामना, उसका मार्ग और अध्यात्म, दर्शन का विरल संस्थापन। संस्थापन और भी है, तीरों पर लेटे भीष्म नहीं, उनसे जुड़ी वेदना के मर्म का, गांधी का, तुशिता स्वर्ग का और हनुमान की उड़ान आदि। कहीं कोई यांत्रिकता नहीं। शायद इसलिए कि अमरेश इनमें अमूर्त को इस सुझावात्मक रीति से मूर्त करते हैं कि अमूर्त की खोज हो सके। मिथकों का अद्भुत छन्द ही तो वह रचते है! शिल्प में युगों से निनादित हमारी सोच, हमारी आस्था और हां, हमारे जीवन से जुड़े चिन्तन का प्रवाह जो उनकी कलाकृतियों में बसता है!
No comments:
Post a Comment