Friday, May 16, 2014

संस्थापन का ‘अतीत राग’


तमाम हमारी कलाएं समय, समाज और परिवेश की व्यंजना है। सृजन-स्त्रोतों पर जाएंगे तो संस्कृति, परम्परा, इतिहास को वहां ध्वनित पाएंगे। कलाएं वैचारिक कोलाहलों की ध्वनियां ही तो है! अतीत और वर्तमान वहां साथ-साथ झिलमिलाता है। और हां, बहुत से स्तरों पर कलाएं अतीत के जरिए ही भविष्य का दरवाजा खोलती हैं।

बहरहाल, भारतीय कलाए बाहर से भीतर की यात्रा कराती हैं। अतीत से जुड़ी स्मृतियां जो वहां होती है! यूरोपीय कला में भीतर से बाहर की यात्रा मिलेगी। इसीलिए वहां यात्रिकता है, हमारे यहां जीवंतता। अतीत को बिसराकर भविष्य की नींव रखी भी कैसे जा सकती है! कलाकार विनय शर्मा की कला पूरी तरह अतीत से ही संपन्न हुई है। 

पुरानी बहियां, जन्मपत्रियां, स्टाम्प पेपर जैसी चीजों से कैनवस को समृद्ध करने के साथ इधर उन्होंने अतीत से जुड़ी चीजों के संग्रह का अपने यहां संस्थापन किया है। अभी बहुत दिन नहीं हुए। भारतीय मूल के जर्मनी कलाकार एम. मुमतानी के  साथ विनय के घर बने स्टूडियो में अतीत से जुड़ी चीजों के संग्रह संस्थापन का आस्वाद किया। लगा, अतीत जैसे हमसे वहां बतिया रहा है। स्टूडियों की धरोहर हैं पुराने जमाने की रोजमर्रा से जुड़ी भांत-भांत की चीजें। ग्रामोफोन, पुराना टाईपराईटर, बड़ी सी दवात, झूले, झाड़ फानुस, ईरानी आईना, सूत कातते चरखे और गुजरे जमाने की याद दिलाते ढेर सारे रेडियो। रेडियो का संग्रह देख जतीन दास के किए पंखों के संग्रह की याद आती है। वहां पंखे हें, यहां रेडियो है। 

बहरहाल, कबाड़ को धो पूंछकर और पुरानी चीजें मांग-मांग कर विनय से दोस्तों से भी संग्रह की है। संस्थापन की लय भी अद्भुत है। एक जगह चरखे से उभरी छवियां-दीवार पर दृश्यमान की गई है। परछाई में चरखा चलता है तो उसके अंदर लगे लाल पीले कांच झिलमिलाते दीवार पर दृश्य सौन्दर्य की सर्वथा नयी दीठ देते हैं। पुराने जमाने के किवाड़ दीवार पर टंगे हुए। देखते हुए लगेगा, अभी चर्र की आवाज के साथ खुलेंगे। एक कोने में छोटा सा पुराना टाईपराईटर पड़ा है, कागज डला हुआ। औचक खट, खट की आवाज जैसे ध्वनित होने लगती है। भांत भांत के रेडियो बजते हुए। तबके भी जब शायद रेडियो की शुरूआत हुई थी। एक तरफ बड़ा सा ग्रामोफोन और उसमें पुराने रिकाॅर्ड बज रहे हैं। पुराने टेलीफोन यंत्र। पुरानी फिल्मों के पोस्टर! अतीत से जुड़े ढेरों दस्तावेज। हर ओर, हर छोर।

अतीत का यही तो है अपनापा। संग्रह संस्थापन में भले चीजें स्थिर हैं परन्तु उनमें लययुक्त गतियां हैं। गुम हुई आवाजें हैं और हैं स्मृतियां। चीजें स्थिर रहें, मौन रहें तो उदासी, सन्नाटा पसरता है पर कलाकर्म से उनमें ध्वनित होने की अनुभूतियां पैदा की जाए वह राग बन जाता है। ‘अतीत राग’ ही तो है विनय शर्मा का यह संस्थापन।


No comments: