Friday, May 23, 2014

नाटक कला है, मनोरंजन नहीं



नाट्यकला में इस दौर की विडम्बना यह है कि उसे कला की बजाय मनोरंजन मान लिया गया है। इसीलिए सिनेमा और टीवी चैनलों के निर्थक कहन के धारावाहिकों को उसकी चुनौती मान लिया गया है। नाटक संवेदनाओं का जीवन राग है। वह तकनीक नहीं है। सोचिए! सिन्थेसाईजर तमाम दूसरे वाद्यों की ध्वनि निकाल देता है तो क्या इसका अर्थ यह मानें कि तबला, हारमोनियम, सारंगी वादन कला की अब जरूरत नहीं रही? नाटक कहानी भी नहीं है। जो कुछ हो चुका है उसी का मंचन होना है तो फिर कला कहां है? यह तो एक विधा का दूसरी विधा में अनुवाद ही हुआ ना? 

बहरहाल, नंदकिशोर आचार्य के नाटकों पर जाएंगे तो पाएंगे उन्होंने अपने नाट्य लेखन में मानवीय संवेदनाओं को असरदार अभिव्यक्ति दी है। यह सही है कि उनकी पहचान नाटककार से अधिक कवि, आलोचक रूप में है परन्तु ‘देहान्तर’ ‘पागलघर’, ‘गुलाम बादशाह’, ‘जिले सुब्बानी’, ‘हस्तिनापुर’, ‘जूते’ जैसे उनके नाटकों में कथ्य के साथ नाट्यकला का  जैसे मूल हैं। अतीत, पुराणों से जुड़ा संदर्भ और इतिहास भले वहां है पर चरित्रों की विचार व्यंजना सर्वथा मौलिक है। देहान्तर’ को ही लें। महाभारत की कथा का वैचारिक उन्मेष वहां है। ययाति, शर्मिष्ठा, पुरू के चरित्रों को नाटककार ने कथा में लिया जरूर है पर उन्हें  अपने तई नाट्य में फिर से जिया है। इसीलिए वह कहानी ही यहां नाट्य रूप लिए नहंी है। इसमें पात्रों का मार्मिक अन्र्तद्वन्द है। एक मां की अन्र्तवेदना है तो वह पौरूष भी है जिसके होते उसकी पत्नी किसी और को मन में पाले हुए है। उस बेटे की व्यथा है जो अपने पिता को यौवन उधार तो दे देता है परन्तु वापस उसे प्राप्त इसलिए नहीं करना चाहता कि उसका भोग मां के साथ हुआ है। माने किसी एक नहीं तमाम पात्रों के द्वन्द में आगे बढता नाटक इस कदर सधा हुआ और मार्मिक है कि पढ़ने के बाद भी उसमें निहित विचार गहरे से मन में पैठ जाता है। 

रंगमंच दरअसल मंचीय कला है। जयशंकर प्रसाद ने बहुत से नाटक लिखे परन्तु उनके नाटक मंच पर अधिक खेले नहीं गए लेकिन ‘स्कन्दगुप्त’ को जब ब.व. कारन्त जैसा निर्देशक मिला तो वह बेहद लोकप्रिय हुआ। नाट्यालेख बढि़या हो, यह तो जरूरी है ही परन्तु उसके साथ मंचन की कला दीठ भी वैसी हो तो नाट्य जनप्रिय हो सकता है। इस समय की बड़ी विडम्बना यह भी है कि नाट्यकर्म सामुहिक चेतना की बजाय वैयक्तिक हो गया है। कभी बीकानेर का रंगकर्म सर्वाधिक सक्रिय था। नाचीज ने एक दशक से अधिक की अवधि में वहां निरंतर पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षाएं की। अंततः यही समझ आया कि नाट्य संस्थाओं के अपने नाटककार हैं, अपने प्रशंसक हैं। इसी से शायद आचार्यजी जैसे नाटककार रंगफलक से कटते चले गए। कला की दृष्टि से हिन्दी रंगकर्म का बड़ा संकट क्या आज यह नहीं  है?



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