Thursday, November 27, 2014

देश की वह सितारा


सितारा देवी 
सच है! चमकता सितारा आसमां पर ही नहीं होता जमीं पर भी होता हैं। और सितारा देवी से बड़ा इसका और उदाहरण क्या होगा। देश में कथक के लोकप्रियकरण की नींव जिनने रखी, उनमें सितारा देवी अग्रणी रही। कथक की गतियों, बोलों और पढ़न्त का जो स्पेस वह रचती थी, वह अद्भुत था। आप उनके नृत्य की पुरानी कोई रिकाॅर्डिंग देख लीजिए, पाएंगे शास्त्रीयता को अंवेरते, परम्परा को सहेजते और सामयिकता की जीवंत करते सितारा देवी नृत्य में अवर्णनीय उत्साह, उमंग और ऊर्जा को जैसे ध्वनित करती। 
 मुझे लगता है, अंग-प्रत्यंग-उपांग में कथक को संवारने और लय के भांत के भांत के रूपक रचने का कार्य किसी ने हमारे यहां किया है तो वह सितारा देवी ही है। शास्त्र के साथ लोक की अनूठी संवेदना उनके पास थी। नृत्य में कहन का विरल लयात्मक अंदाज उनके पास था। उनके नृत्य में स्थापत्य की विविधता थी। कृष्ण लीलाओं की उनकी कथक प्रस्तुतियां को ही लें। देखते लगेगा, किसी एक कलाकार ने कृष्ण से जुड़े तमाम आख्यानों को अकेले अपने बूते भीतर की अपनी ऊर्जा से जीवंत किया है। याद करें, उनके ‘कालिया मर्दन’ नृत्य को। लगेगा, दृष्टि, शिर, ग्रीवा से वह कथा में निहित कहन को जैसे साक्षात् साकार कर रही है।  और यही क्यों, सूरदास की रचना ‘ठुमक चलत रामचन्द्र’ भी अद्भुत! यह सही है, अंत तक वह प्रस्तुति देती रही और इधर वय का असर भी साफ दिखने लगा था। पर चेहरे का उनका ओज और भाव-भंगिमाओं में निहित उत्साह से यह भी लगता कि वही ऐसी कलाकार हैं जो नृत्य के रूपाकारों में जीवन की उदात्ता को ढलती हुई उम्र्र में भी इस कदर खूबसूरती से रच सकती है। 
बहरहाल, दीपावली के दिन कोलकता में 1920 को यह महान नृत्यांगना जन्मी। पिता ने नामकरण किया धनलक्ष्मी। प्यार का नाम हुआ धन्नो। पर यही धन्नों बाद में कथक की प्रस्तुतियों से इस कदर चमकी कि पिता ने उन्हें सितारा कहना आरंभ कर दिया।  नृत्य में कहन के सौन्दर्य के बीज सितारा देवी में उनके अपने पिता सुखदेव महाराज ने ही बोये। वह संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान, नाट्यशास्त्र मर्मज्ञ और बनारस घराने के प्रसिद्ध कथक नर्तक, कथाकार थे। कथक में पंडित सुखदेव महाराज ने ही धार्मिक तत्वों की कभी नींव रखी थी। सितारा देवी ने कथक में शास्त्रीय ताने-बाने को बरकार रखते हुए भी परिवेश से जुड़ी संवेदना और समय के साथ हो रहे परिवर्तनों से उसे निरंतर समृद्ध किया। संगीत नाटक अकादमी अवार्ड, पद्मश्री के बाद भारत सरकार ने जब उन्हें पद्मभूषण देना चाहा तो सितारा देवी ने उसे ठुकरा दिया। उनकी  चाह ‘भारत रत्न’ की थी।...और मुझे लगता है, इसकी वह असल हकदार थी भी। आखिर क्यों नहीं ‘भारत रत्न’ उन्हें नहीं दिया जाता जिन्होंने संगीत, नृत्य, चित्रकला में अपने अप्रतिम योगदान के जरिए भारतीय संस्कृति की जड़ों को सींचने का कार्य किया है! 



Friday, November 21, 2014

उत्सवधर्मिता से जुड़ा कला पर्व


आर्ट समिट का  शुभारम्भ अनुप्रिया ने की सामुहिक उत्साह की सुमधुर व्यंजना 
जयपुर पिछले कुछ दिनों लगातार कलाओं के रंगों से सराबोर रहा। इस मंगलवार को ‘जयपुर आर्ट समिट’ का समापन हो गया पर उसके रंग अभी भी फीजा में जैसे बिखरे पड़े हैं।  उत्सवधर्मिता की दीठ से कला का यह आयोजन किसी मेले और पर्व सरीखा ही था।

 पिछले वर्ष इसकी शुरूआत चंद कलाकारों की पहल से हुई थी और इस वर्ष यह सच में परवान चढ़ा। कोई काॅरपोट घराना नहीं, मुनाफे के बाजार का प्रयोजन नहीं, सरकार का बड़ा साथ नहीं फिर भी अच्छे उद्देश्य के लिए स्थानीय कलाकारों का मेल कैसे किसी दुरूह आयोजन को अंजाम दे सकता है-‘आर्ट समिट’ इसका उदाहरण है।  

बहुत से स्तरों पर जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल से यह कहीं अधिक सफल, सहज और आम जन की कला संवेदनाओं में रंग भरने वाला था। इस मायने में भी कि बाजार के रंगों से परे यहां संवेदना के सुर ध्वनित हो रहे थे। बाहर से आए कलाकार अंदर से प्रफुल्लित थे, कलाओं का आस्वाद करने वाली भीड़ के अंदर कहीं कोई बोझ नहीं था। फुर्सत थी और उत्सवधर्मिता का गान भी हर ओर, हर छोर था। हां, सस्ते प्रचार हथकंडे के लिए कला के नाम पर आस्था पर प्रहार करते अनर्गल प्रयोग के कलाकार की विकृत मानसिकता को छोड़ आयोजन काबिले तारीफ था।
जवाहर कला केंद्र में एक संस्थापन यह भी 
बहरहाल, एक निजी होटल में ‘आर्ट समिट’ के शुभारंभ की वह सुबह सुहानी जिसमें वायलिन पर राग बसंत की स्वरलहरियां छिड़ी। पता नहीं क्यों, वायलिन के सुर सदा ही एकाकीपन को व्यंजित करते मन के भीतर की व्यथा को बाहर निकालते ही प्रतीत होते रहे हैं। पर जैसे-जैसे वायलिन के सुरों का कारवां आगे बढ़ा, लगा वातावरण में बासंती रंगों को ध्वनित करते अनुप्रिया ने सामुहिक उत्साह की सुमधुर व्यंजना की है। 

देश-विदेश के एक दर्जन कलाकारों ने कला के इस पर्व में मूर्त-अमूर्त में कैनवस पर रंग-रेखाएं उकेरी तो कलादीर्घाओं में प्रदर्शित कलाकृतियां से कला के अतीत, वर्तमान और भविष्य की आहटें जैसे ध्वनित हो रही थी।  लगा, स्थानीय विषयों के साथ वैश्विक सरोकार तेजी से कला में बढ़े हैं। हां, संस्थापन में गंभीरता के साथ अनर्गल की भी भरमार कम नहीं देखने को मिली। कला फिल्मों की दीठ से आयोजन विश्व के बेहतरीन आयोजनों में शुमार किया जा सकता है। श्वेत-श्याम छायाचित्रों की प्रक्रिया के बहाने छायांकन के सौन्दर्य में रमे जीवन के स्पन्दन की हिमांशु व्यास की वृत्तचित्र व्यंजना अद्भुत थी। मन को मथने वाली। विनय शर्मा ने संस्थापन को नाटकीय रूप में रखा। पन्नों निर्मित पोषाक का उनका विचरण दर्शकांे के लिए कौतुक जगाने वाला था। हां, कला संवाद के अंतर्गत वक्ताओं ने क्या कुछ कहा, उनके सरोकारों पर उदासीनता ही अंत तक पसरी रही। 
कला संस्कृति विभाग के प्रमुख शासन सचिव शैलेन्द्र अग्रवाल ने आयोजन के शुभारंभ के दिन कला प्रोत्साहन के लिए सभी को मिलकर प्रयास की बात कही थी। सच भी है! सरकार, उद्यमी, कलाकार और आम जन यदि स्वयं पहल करे तो क्या नहीं हो सकता। ‘आर्ट समिट’ से बेहतर इसका और उदाहरण क्या होगा! 

Saturday, November 15, 2014

छायांकन कला की सौन्दर्य लय


सौन्दर्य की सुरम्य संवेदना 
सभी छाया चित्र : अजय राठौड़ 
दृष्य से बड़ी अदृष्य की सत्ता होती है। मन मस्तिष्क पर प्रायः उस अदीठे का ही तो प्रभाव पड़ता है जिसमें दिखे का अर्थ छुपा होता है। कलाएं इसीलिए तो मौन की अभिव्यक्ति कही जाती है। छायांकन कला है, बषर्ते उसमें मौन मुखरित हो। अदृष्य की लय छायाकार संजोए। दृष्य की संवेदना के मर्म में वह जाए। कुछ समय पहले जब अजय सिंह राठौड़ के छायाचित्रों का आस्वाद किया तो लगा, वह दृष्य में निहित अदृष्य के मर्म को अपने तई रचते हैं। औचक! बारम्बार।
बहरहाल, अजय के छायाचित्रांे की बड़ी विषेषता है प्रकृति में निहित सौन्दर्य की छायांकन सूझ से की गई व्यंजना। उनके छायाचित्रों में राजस्थान सर्वथा भिन्न रूप में दिखाई देता है। पहाड़, नदी और हरितिमा से आच्छादित धरित्री का राजस्थान! इसलिए कि उंघता पहाड़, बल खाती नदी, सरोवर और उसमें तैरते कमल, किले-महल और झरोखों से झांकती सुरम्य दीठ को उन्होंने कैमरे से संजोया है। अजय के छायांकन किले-महलों में पसरे मौन की मुखर अभिव्यक्ति है। छायाचित्रों का आस्वाद करते औचक रूसी चित्रकार रोरिक के हिमालय चित्रों की याद आती है। रोरिक ने हिमालय के प्रकृति रंगों को अवंेरा है तो अजय ने राजस्थान के किले-महलों के पाषाणों पर पड़ती धूप, छांव और अस्त होते सूर्य की की संवेदना का जैसे छायाचित्रों में गान किया हैं।
सुरम्य दीठ- भैसंरोडगढ़
यह है तभी तो बूंदी के सुख महल के एक छायाचित्र में आसमान की परछाई के साथ जैत सागर झील के सौन्दर्य की सुरम्य संवेदना का उनका छायाचित्र देखने के बाद भी मन में बसा रह जाता है। कभी रूडयार्ड किपलिंग ने सुख महल में दो दिन बिताए थे। अजय ने भी यही किया। जैतसागर झील और सुख महल पर प्रकृति की पड़ती रोषनी के निहित में गए और ठौड़-ठौड़ अपने कैमरे से उसे अंवेरा। ऐसा ही उनका लिया केषवराय पाटन मंदिर का वह विरल छायाचित्र भी है जिसमें मंदिर, उसका षिल्प सौन्दर्य पानी में रखी किसी चट्टान में मढ़ा हुआ जैसे हमसे बतियाता है। बाड़ौली के मंदिर समूहों के उनके छायाचित्रों में पत्थर पर उत्कीर्ण कला का सांगोपांग चितराम है। चंबल नदी किनारे स्थित भैसंरोडगढ़ के एक छायाचित्र में झरोखे से झांकते दृष्य में दूर बनी दीवार और बुर्ज के साथ पसरी हरियाली का सांगोपांग दृष्य आंखों में जैसे सदा के लिए बस जाता है।

जैसे किसी खोई हुई सभ्यता को हमने फिर से पा लिया है

बूंदी का किला यूं हम सभी ने देखा है पर राह से किले के दृष्य का अद्भुत छायाचित्र अजय ने छायांकन की अपनी कला से साकार किया है। यह ऐसा है जिसमें गढ़ में निहित दृष्य कोलाज प्राचीन किसी सभ्यता से जैसे हमारा साक्षात् कराता है। बारादरियां, छोटे-छोटे दरवाजे, सीढि़यां, रास्ते और चट्टानों में बिखरी पुरातनता को छायाचित्रों में एक साथ निहारते लगता है, जैसे किसी खोई हुई सभ्यता को हमने फिर से पा लिया है। आभानेरी की बावड़ी हो या फिर परवन नदी के किनारे स्थित शेरगढ़ के इतिहास को संजोती उनकी छायांकन दीठ-सभी को देखते लगता है अजय धीरे-धीरे गुम हो रही हमारी षिल्प संस्कृति और दृष्य में निहित मौन की सौन्दर्य संवेदना को अपने तई छायाचित्रों में व्याख्यायित ही तो करते हैं!


Sunday, November 9, 2014

काश! सीख पाता उनसे वह जीवन कला


बहुतेरी बार कुहासे बाहर ही नहीं होते, मन के भीतर भी गहरे से छाए होते हैं। न छंटने की जिद लिए। पूर्वाग्रह, अपने को स्थापित करने से जुड़े छल, प्रपंच, बनावटीपन के आवरण में यह मानव मन भीतर के कुहासों से ही तो लिपटा होता है। जो इन कुहासों की गर्द में नहीं जकड़ा, समझें वही जीवन जीने की असल कला जानता है। पिता श्री प्रेमस्वरूप व्यास ऐसे ही थे। अंदर-बाहर से खुली किताब। कहीं कोई छुपाव नहीं,  कहीं कोई बनावटीपन या छल-कपट नहीं। जो पसंद आया, खुलकर उसे सराहा, जो नहीं जंचा वहीं उसके खिलाफ मोर्चा खोल जमकर बोल दिया। बगैर इस बात की परवाह किए कि परिणाम क्या होगा!
मित्र लोग मुझे कलाओं से सरोकार रखने वाला लेखक कहते हैं पर पापा को याद करता हूं तो लगता है, कलाओं में रमते, उन्हें अनुभूत करते कागज-कलम से कुछ लिखना ही कला नहीं है। हां, यह प्रक्रिया कलात्मक जरूर हो सकती है पर कला नहीं हो सकती। सच्ची और अर्थपूर्ण कला संगीत नहीं, नृत्य नहीं, चित्र नहीं मनुष्य होने का बोध  है। इसीलिए उद्देश्यपूर्ण जीवन जीना ही कला है। मुझे लगता है, जीवन इसलिए भी कला है कि इससे ही मनुष्य सौन्दर्य को रच सकता है। बाहरी ही नहीं आंतरिक सौन्दर्य भी। अंतर के सौन्दर्य की रचना दुरूह है, बाहर के सौन्दर्य की रचना आसान। 
देना-पावना चुकाकार  आज ही के दिन एक बरस पहले पिताजी लोकातंरित हो गए। वह सब काम बहुत तेजी से किया करते थे। फूर्ती से। यही फूर्ती उन्होंने जाने में भी दिखाई। जीवन जीने की सच्ची कला उनके पास थी। हम उनके लिए कभी बड़े हुए ही नहीं। घर में वह रहते तो सभी को उनके होने का अहसास बना रहता। सीधे तौर पर वह हमसे बातचीत नहीं करते थे। एक डर सा उनका रहता था पर वह बेवजह कभी डांटते भी नहीं थे। न जाने क्या उनके व्यक्तित्व में था कि उनके सामने कुछ भी कहने की हिम्मत कभी होती ही नहीं थी। हम लोग अपनी बात मां के जरिए उन तक पहुंचाते। तब भी जब स्कूल में पढ़ते थे और तब भी जब स्वयं के बच्चे हो गए। यह उनके व्यक्तित्व का जादू था कि उनके सामने सदा ही बच्चे ही बने रहने का मन करता। काल कवलित वह जब हुए तो इसका अहसास किसे था! याद है, दीपावली उनके साथ ही मनाई थी। और उसके चन्द दिनों बाद ही वह बगैर कोई आहट, हम सब से सदा के लिए दूर चले गए। याद है, वह जयपुर से हमारे आने की बाट जोहते। कहते कुछ नहीं पर पूरी तैयारी करके रखते। मम्मी से पूछते, ‘कब आ रहा है तुम्हारा बेटा? फोन कर दो, बच्चों के साथ अब आ जाए।’ खुद जयपुर कभी कभार ही आते। मम्मी जयपुर होती तो कहते, अपनी मां को वहीं रख लो पर हम जानते थे, मम्मी के बगैर उनका भी मन नहीं लगता था। मम्मी को भी उनकी चिंता लगी रहती सो वह भी कुछ दिन रूककर ही उनके कारण वापस लौट जाती। कहते, ‘घूर सूनो कोनी छोड़ सकूं।’ हम जानते हैं, घर में क्या था पर शायद उनका मन जयपुर में लगता नही ंथा। अपने घर में ही वह रहना चाहते थे। अपने भाईयों से उनका गहरा लगाव था। बड़े भईया मनोज को साथ रखते। रोज सुबह भतीजी मुक्ता को बस छोड़ने की जिम्मेदारी भी उन्होंने औचक अपने आप ही ओढ़ ली और चिरनिद्रा में जाने वाले दिन तक उसे निभाया। वह काम ऐसे ही ओढ़ लेते थे। ठाले बैठे उन्हें कभी नहीं देखा। हरदम कुछ न कुछ करते रहना। गुनगुनाते रहना। कुछ बरसो से वह धार्मिक गं्रथो के प्रति गहरे से आसक्त हो गए थे। बल्कि वेद-पुराणों के नोट्स बनाने लगे थे। 
हम उनसे सहमते पर नीहार, यशस्वी (पुत्र-पुत्री) से उनकी खूब घूटती थी। जयपुर से बीकानेर आने का कार्यक्रम के बारे में पता चलते ही स्कूटर को साफ-सुथरा कराने के साथ मिस्त्री से उसे चैक करवाकर रखते, पैट्रोल की टंकी फूल। खुद भले साईकिल का इस्तेमाल करते पर चाहते मैं उनके स्कूटर का ही उपयोग करूं। कभी हमसे कुछ लिया नहीं, बल्कि कभी उपहार स्वरूप ही कुछ लेकर आए तो सख्ती से उसे लेने से इन्कार कर दिया। अपनी तरफ से बस सबका करना, चाहत कुछ भी नहीं। अपेक्षा रहित था उनका जीवन।
बहरहाल, इस लोक में मनुष्य जीवन यात्रा के जो तीन अंष कहे जाते हैं, उनमें से एक अंष कला का है। हर व्यक्ति कलाकार है। बषर्ते वह जीवन जीने की कला में रमे। उसमें बसे। पिताजी इस मायने में निष्छल जीवन से जुड़ी इस समय की दुर्लभप्रायः कला से ही तो जुड़े थे। सोचता हूं, उन्होंने ही तो बहुत से अर्थों में जीवन में पसरे कुहासे को हटाने की कला से साक्षात् कराया। उपदेष देकर नहीं-अपने जिए से। अपेक्षा के अंधकार से वह सदा दूर रहे। उनकी सीख स्वाभिमान से जीने की थी। उसूलों पर कायम रहने की है। पेड़ की जड़ पेड़ का जीवन है। फूल-फल के लिए जड़ को मजबूत करना होता है। वह सदा हरी रखनी होती है। जड़ को खोदकर उपर ले आए तो उसका सौन्दर्य नष्ट हो जाता है। जीवन भी सूख जाता है। मुझे लगता है, जीवन जड़ को बचाते, उसके सौन्दर्य को अंवेरते वह जूझते रहे। संघर्ष करते रहे, कभी उसे बाहर नहीं आने दिया। याद है, उनका नश्वर शरीर पंचभूत में विलीन हो रहा था,  मन में उनके खरेपन, सच्चाई के जीवन और किसी के प्रति दुराग्रह नहीं रखने के उनके सैकड़ों किस्से ही तैर रहे थे। बहुधा वह लोगों को डांट देते पर क्षण बीतता और वह खुद ही भुल जाते कि उन्होंने कुछ कहा है क्या! 
अब जब वह नहीं है, सौन्दर्य की उनकी जीवन दीठ गहरे से समझ आ रही है। मनोभाव छुपाना आसान है, व्यक्त करना कष्टप्रद। कष्ट उठाना हर किसी के बस का कहां! पिताजी ने ताउम्र यह कष्ट उठाए। इसलिए कि उन्हें अपने को छुपाना नहीं आता था। अंदर से किसी का बुरा न चाहने वाले, सबके लिए कुछ न कुछ अच्छा करने की चाह के बावजूद कटुक्ति के वाक्यबाणों से वह सदा दूसरों को अपना दुष्मन बनाते रहे। शायद इसलिए भी कि भाषा का कारू कार्य उनके पास नहीं था। मन के अच्छे भावों को प्रचलित मीठे शब्दों में व्यक्त करना उन्हें नहीं आता था। वाक्यबाणों से अपने अच्छेपन को सदा वह खुद ही धोते रहे। अच्छेपन को कभी साबित नहीं होने दिया। दावपेच, छलकपट से वह कोसों दूर जो थे! कथित बुद्धि के चातुर्य का सौन्दर्य नहीं। चमक दमक की व्यावहारिकता को परे धकेलते वह जिए।  जिसे जब चाहे कुछ भी सुना दिया। जब चाहे डांट दिया। बगैर इस बात की परवाह किए कि इसका परिणाम क्या होगा। मन में किसी के प्रति कोई बैर-भाव नहीं पर सीधे सट सुना देने से उपजी गांठों को सहते विरोध उत्पन्न करते रहे। भले को भला, बुरे को बुरा कहने में कभी कोई हिचक नहीं की।
सोचता हूं, दान हाथ फैलाकर लिया जाता है। त्याग आंखो से दिखाई पड़ता है लेकिन आडम्बरहीन निष्छलता, भीतर की उदात्तता का वैराग्य किसे कहां दिखता है! पिताजी प्रेमस्वरूपजी ‘भूरजी’ इस मायने में वैरागी थे। छल वह जानते नहीं थे। झूठ चाहकर भी बोल नहीं सकते थे। अपने लिए कभी कोई चाह नहीं थी। दाव-पेच वह जानते नहीं थे।निर्भर वह किसी के रहना नहीं चाहते थे। नपा-तुला सुचिन्तित रहन-सहन। कहीं किसी से कोई अपेक्षा नहीं। दीनता कभी दिखाई नहीं। बल्कि सहानुभूति कोई जताए, यह भी उन्हें सहन नहीं था। पराभव कभी स्वीकार नहीं किया। 
किसी का दिल दुखाने की इच्छा कभी रही नहीं पर खारे बोल रोक पाना भी तो उकने बस में कहां था! अंदर से कभी किसी का बुरा नहीं चाहते हुए भी बहुतेरी बार बल्कि प्रायः ही बुरे व्यक्ति होने की छवि को वह भोगते रहे। सोचता हूं, खारे बोल अच्छी बात नहीं है पर उसके लिए अंदर के अच्छेपन के द्वार बंद कर देना भी तो कल्याणकारी नहीं है। पिताजी अंदर के अच्छेपन का द्वार खोले खारेपन की छवि से सदा ही बेपरवाह ही रहे। शायद इसलिए कि क्रोध से उनका गहरा नाता था। कोई बात मन माफिक नहीं हुई। कहीं कुछ अनैतिक दिखा, त्वरित क्रोध। दुर्वासा सा। 
यह उनके संस्कार थे। और संस्कारों के विरूद्ध बनावटीपन के सौन्दर्य को वह रच नहीं सकते थे। अब जबकि वह नहंी है, लगता है बहुतेरे उन्हें समझ ही नहीं पाए। पर वह जब नहीं रहे, तब यह भी देखा है कि जो उन्हें समझ गए थे, उनकी स्मृतियों को सहेजे उन्हें भूलना ही नहीं चाहते। जो व्यक्त नहीं कर पाए, वह अब व्यक्त कर रहे हैं। मुझे गर्व है कि मैं उनका पुत्र हूं। वह चले गए। सुख-दुख से परे। देना-पावना चुकाकर लोकातंरित हो गए हैं। अफसोस उनकी मृत्यु का नहीं है। यह तो स्वयं उनका वरण थी। आखिर वह यह कैसे सहन करते कि कोई उनकी तिमारदारी करे। कैसे वह यह सहन करते कि कोई उनसे सहानुभूति जताए। इसीलिए कुछ क्षण पहले जिन्होंने उनसे संवाद किया, उन्होंने उन्हें उनके फक्कड़पन के अलमस्त अंदाज में ही देखा। अफसोस इस बात का है कि जीते जी उनके जीवन जीने की उस कला को नहीं सीख पाया जो पास रहकर भरपूर सीख सकता था। पर इसके लिए उनके जैसा बनना पडता। भला यह बनावटीपन से भरे इस जीवन में क्या संभव था!

पिता की याद में पांच कविताएं 
मोक्ष पर्व
पहाड से बिछुड़
रो रहा जल,
अजस्त्र स्त्रोतों से
बहाती नीर
नदी मिल रही
सागर में।
समुद्र ही तो है
बहते पानी के
बंधन का-
मोक्ष पर्व!

ममेतर
तुम थे,
तो था
मैं,
और-
मेरा यह ममेतर!


साथ कब चली काया!
छत है-
तो छाया ;
पर-
साथ कब चली
काया!
लिखता हूं शब्द

शब्द
लिखता हूं शब्द
‘भोर’
घिर जाता है प्रकाश
जीवन सा लगता
मैं करता हूं जतन
बटोर लूं
सारा का सारा।
समा लूं शब्दों में
सदा के लिए।
कि-
क्षितिज से विदा लेता है सूर्य
काल गति गढ़ जाती है शब्द-
‘सांझ।’

भोर की नींद
उंघता सन्नाटा
बुन रहा-
उनके होने की ठौड़।
चुपचाप
बर्तन में उड़ेलकर दूध
चला गया दूधिया
कराते हुए
उनके न होने का अहसास।
पिता होते तो
रोबदार आवाज
करती नींद में खलल।
भले सामने कुछ नहीं कह पाते
पर
मन में पलता जल्दी उठा देने का रोश।
अब जबकि-
नहीं है पिता
लापता है,
भोर की वह नींद।




Friday, November 7, 2014

अनंत व्योम से जुड़ा शाश्वत नृत्य


प्रख्यात कत्थक नृत्यांगना सितारा देवी (छाया सौजन्य : वेब)
 नृत्य जीवन है। उमंग, उल्लास के साथ भावों का प्रगटन! नृत्य में यही तो होता है। कथक को ही लें। कलाकार नृत्य करता है पर अनंत व्योम से भी अनायास ही साक्षात् होता है। रायगढ़ घराने की कथक नृत्यांगना और लेखिका डाॅ. चित्रा शर्मा ने इधर आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण के लिए कथक पर बेहतरीन रेडियो रूपक तैयार किया है। रेडियो रूपक के अंतर्गत उन्होंने बिरजू महाराज से लेकर कथक के तमाम आधुनिक कलाकारों हुए संवाद और कथक की कथा को गहरे से संजोया है। इन पंक्तियों के लेखक से भी चित्रा ने रेडियो संवाद किया। तभी कथक की नृत्य प्रस्तुतियों के आस्वाद को याद करते बहुत कुछ औचक ही जैसे फिर से जिया। 
बहरहाल, मुझे लगता है, कलाओं में फ्यूजन की बहुत सी रूढि़यांे ने नृत्य की हमारी शास्त्रीयता को नुकसान पहुंचाते संवेदना को निरंतर लीर लीर भी किया है। लोक गायन भी इससे कहां अछूता रहा है! लंगाओं को जब राजस्थानी लोकगीत गाते सुनता हूं तो लगता है, वह उसका सूफीकरण कर लोक संवेदनाओं की हत्या कर रहे हैं। लोक नृत्यों और शास्त्रीय नृत्यों के साथ भी यही हो रहा है पर कथक आज भी शास्त्रीय, शास्वत है। इसलिए कि उसमें जीवन से जुड़ी संवेदनाओं के मूल को नहीं बिसराया। शायद इसलिए भी कि घरानों में आबद्ध होते हुए भी उसमें स्वतंत्रता की गुंजाईश है। मंदिरों से यह निकल राज  दरबारों में पहुंचा। वहीं से इसके घराने निकले और पहचान भी बनी। बहुतों को हैरत हो सकती है, कथक घरानों के इतिहास के जिन प्रथम पुरूष सांवलदास का नाम लिया जाता है, वह राजस्थान के बीकानेर महाराजा अनूपसिंह के शासनकाल में हुए। बीकानेर के राजा कल्याणमल के पुत्र पृथ्वीराज (पीथल) कभी अकबर के नौ रत्नों में से एक गिने जाते थे। कथक नृत्य की प्राप्त रचनाओं में इनकी रचित ‘योगमाया’ और ‘कन्हैयाष्टक’ (अमृत ध्वनि) का विशेष महत्व है। स्वतंत्रतापूर्व के राजस्थान के चूरू के 199 गांव कथकों के केन्द्र रहे। बाद में वहां के ठिकानेदारों ने इन्हें आश्रय दिया। है ना यह सब रोचक!
कथक की परिवर्तन कथाओं पर आएं। जब तक यह मंदिरों में होता था, भगवान के चरणों में वंदन, नमस्कार होता था। दरबारों में  आया तो नृत्य की लय ठाह, दुगुन, तिगुन, चैगुन को एक ही टूकड़े में नाच कर सम पर आने को सलामी कहा जाने लगा। रंगमंच का तोड़ा सलामी हो गई। मंदिरों से कथक के दरबारों में प्रवेष के बाद ‘प्रवेष का तोड़ा’ आमद हो गया। कहते हैं, नवाब वाजिद अली शाह ने कथक में ‘नाज’ नाम से पृथक से एक गत का ही चलन कर दिया। धु्रवपद से तराना, ठुमरी और गजल और अब तो सम-सामयिक विषयों को भी इसमें गुना और बुना जाने लगा है। पर इस समय यह जब लिख रहा हूं, एक बुरी खबर सुनने को और मिली है कि कथक की प्रख्यात नृत्यांगना सितारा देवी आईसीयू में है। आईए, मेरे साथ आप भी दुआ करें उनकी सलामती की। 

Saturday, November 1, 2014

छायांकन की सौन्दर्य संवेदना


छायांकन दृश्य  संवेदना की अनुभूतिपूरक व्यंजना है। क्षण जो घट रहा है, उसे कालातीत करने की कला। एक समय था जब गति, एंगल, कंपोजिशन के जरिए ही इस कला को पहचाना जाता था पर डिजिटल कैमरे आने के बाद स्थितियां बदल गई है।  आप किसी विषय, समय, कार्यक्रम को हजार तरह से क्लिक करें, एकाध तो कला की दीठ से बेहतरी लिए आएगा ही।
बहरहाल, छायांकन आंख की संवेदना से जुड़ी विरल कला है। छायाकार केे सौंदर्यबोध, दृश्य को अपने तई कैमरे से जीने, विषय में रमने और जो कुछ दिख रहा है-उससे अनुभूति में क्या कुछ हासिल हुआ है-यही सब तो है, जो छायांकन को तकनीक से कला में रूपान्तरित करता है। डिजिटल कैमरे आने के बाद छायांकन कला की कूंत क्या इसी सबसे नहीं होनी चाहिए!  इसलिए कि अब हर किसी के पास उच्च तकनीक के कैमरे हैं-मोबाई, आईपैड के जरिए। स्वाभाविक ही है, हर कोई छायाकार है। पर हजारों-लाखों के बीच अब  इस कला में बेहतरी की चुनौतियां भी कम कहां है!
कुछ दिन पहले अपने बेटे नीहार के साथ उसकी स्कूल सेंट जेवियर जाना हुआ। वहीं कक्षा 9 से 12 वीं तक के विद्यार्थियों की वार्षिक छायाचित्र प्रदर्शनी का आस्वाद भी किया। कला की दीठ से एक से बढकर एक छायाचित्र! लगा, नई पीढ़ी के पास छायांकन की संवेदना में जीवन का राग भी है, अनुराग भी। छायाचित्रों में तकनीक का जलवा ही नहीं था। स्थिर और चलायमान दृष्यों में भी कला की भावाभिव्यंजना गहरे से दिख रही थी। एक छायाचित्र था, छात्र राहुल शारदा का। हरियाली में उभरते इंद्रधनुष का सुनहरा दृष्य। एक और छायाचित्र। दोनों और पेड़ और घास। बीच से निकलती छोटी सी पगडंडी-टेढी मेढ़ी। ऐसे रास्तों से गुजरते हम भी है पर ठहरकर कभी देखें-कोई अद्भुत दृष्य कैमरा रच ही देगा! सिद्धार्थ सहाय के इस छायाचित्र में कुछ ऐसा ही था। इसीता गोधा ने आमेर किले पर पड़ती धूप की सुनहरी आभा को सदा के लिए जीवंत किया। मानसी पारीक ने परकोटा देखा और उससे उपजी संकरी पगडंडी सरीखी को दृष्य में अंवेर दिया। अर्णव गोदारा ने बंदर की उछाल के दृष्य को पकड़ा तो खुषी ने पेड़ों के झुरमुट मंे उगती धूप को कालजयी किया। अंष बिरमानी, शुभम जैन, आषीष फोफलिया ने भी छायांकन में निहित कला को गहरे से अपने चित्रों में जिया। यही तो है सौंदर्यबोध। तकनीक से अद्भुत, तो किया जा सकता है पर सौन्दर्य की संवेदना को तो वह आंख ही पकड़ती है जिसमें दृष्य से उपजे भाव कुछ रचने के लिए प्रेरित करते हैं। क्या ही अच्छा हो, षिक्षण संस्थाओं में छायांकन कला प्रदर्षनी के साथ ही इस कला पर विमर्ष से जुड़े संवाद की राह भी खुले।