Sunday, November 9, 2014

काश! सीख पाता उनसे वह जीवन कला


बहुतेरी बार कुहासे बाहर ही नहीं होते, मन के भीतर भी गहरे से छाए होते हैं। न छंटने की जिद लिए। पूर्वाग्रह, अपने को स्थापित करने से जुड़े छल, प्रपंच, बनावटीपन के आवरण में यह मानव मन भीतर के कुहासों से ही तो लिपटा होता है। जो इन कुहासों की गर्द में नहीं जकड़ा, समझें वही जीवन जीने की असल कला जानता है। पिता श्री प्रेमस्वरूप व्यास ऐसे ही थे। अंदर-बाहर से खुली किताब। कहीं कोई छुपाव नहीं,  कहीं कोई बनावटीपन या छल-कपट नहीं। जो पसंद आया, खुलकर उसे सराहा, जो नहीं जंचा वहीं उसके खिलाफ मोर्चा खोल जमकर बोल दिया। बगैर इस बात की परवाह किए कि परिणाम क्या होगा!
मित्र लोग मुझे कलाओं से सरोकार रखने वाला लेखक कहते हैं पर पापा को याद करता हूं तो लगता है, कलाओं में रमते, उन्हें अनुभूत करते कागज-कलम से कुछ लिखना ही कला नहीं है। हां, यह प्रक्रिया कलात्मक जरूर हो सकती है पर कला नहीं हो सकती। सच्ची और अर्थपूर्ण कला संगीत नहीं, नृत्य नहीं, चित्र नहीं मनुष्य होने का बोध  है। इसीलिए उद्देश्यपूर्ण जीवन जीना ही कला है। मुझे लगता है, जीवन इसलिए भी कला है कि इससे ही मनुष्य सौन्दर्य को रच सकता है। बाहरी ही नहीं आंतरिक सौन्दर्य भी। अंतर के सौन्दर्य की रचना दुरूह है, बाहर के सौन्दर्य की रचना आसान। 
देना-पावना चुकाकार  आज ही के दिन एक बरस पहले पिताजी लोकातंरित हो गए। वह सब काम बहुत तेजी से किया करते थे। फूर्ती से। यही फूर्ती उन्होंने जाने में भी दिखाई। जीवन जीने की सच्ची कला उनके पास थी। हम उनके लिए कभी बड़े हुए ही नहीं। घर में वह रहते तो सभी को उनके होने का अहसास बना रहता। सीधे तौर पर वह हमसे बातचीत नहीं करते थे। एक डर सा उनका रहता था पर वह बेवजह कभी डांटते भी नहीं थे। न जाने क्या उनके व्यक्तित्व में था कि उनके सामने कुछ भी कहने की हिम्मत कभी होती ही नहीं थी। हम लोग अपनी बात मां के जरिए उन तक पहुंचाते। तब भी जब स्कूल में पढ़ते थे और तब भी जब स्वयं के बच्चे हो गए। यह उनके व्यक्तित्व का जादू था कि उनके सामने सदा ही बच्चे ही बने रहने का मन करता। काल कवलित वह जब हुए तो इसका अहसास किसे था! याद है, दीपावली उनके साथ ही मनाई थी। और उसके चन्द दिनों बाद ही वह बगैर कोई आहट, हम सब से सदा के लिए दूर चले गए। याद है, वह जयपुर से हमारे आने की बाट जोहते। कहते कुछ नहीं पर पूरी तैयारी करके रखते। मम्मी से पूछते, ‘कब आ रहा है तुम्हारा बेटा? फोन कर दो, बच्चों के साथ अब आ जाए।’ खुद जयपुर कभी कभार ही आते। मम्मी जयपुर होती तो कहते, अपनी मां को वहीं रख लो पर हम जानते थे, मम्मी के बगैर उनका भी मन नहीं लगता था। मम्मी को भी उनकी चिंता लगी रहती सो वह भी कुछ दिन रूककर ही उनके कारण वापस लौट जाती। कहते, ‘घूर सूनो कोनी छोड़ सकूं।’ हम जानते हैं, घर में क्या था पर शायद उनका मन जयपुर में लगता नही ंथा। अपने घर में ही वह रहना चाहते थे। अपने भाईयों से उनका गहरा लगाव था। बड़े भईया मनोज को साथ रखते। रोज सुबह भतीजी मुक्ता को बस छोड़ने की जिम्मेदारी भी उन्होंने औचक अपने आप ही ओढ़ ली और चिरनिद्रा में जाने वाले दिन तक उसे निभाया। वह काम ऐसे ही ओढ़ लेते थे। ठाले बैठे उन्हें कभी नहीं देखा। हरदम कुछ न कुछ करते रहना। गुनगुनाते रहना। कुछ बरसो से वह धार्मिक गं्रथो के प्रति गहरे से आसक्त हो गए थे। बल्कि वेद-पुराणों के नोट्स बनाने लगे थे। 
हम उनसे सहमते पर नीहार, यशस्वी (पुत्र-पुत्री) से उनकी खूब घूटती थी। जयपुर से बीकानेर आने का कार्यक्रम के बारे में पता चलते ही स्कूटर को साफ-सुथरा कराने के साथ मिस्त्री से उसे चैक करवाकर रखते, पैट्रोल की टंकी फूल। खुद भले साईकिल का इस्तेमाल करते पर चाहते मैं उनके स्कूटर का ही उपयोग करूं। कभी हमसे कुछ लिया नहीं, बल्कि कभी उपहार स्वरूप ही कुछ लेकर आए तो सख्ती से उसे लेने से इन्कार कर दिया। अपनी तरफ से बस सबका करना, चाहत कुछ भी नहीं। अपेक्षा रहित था उनका जीवन।
बहरहाल, इस लोक में मनुष्य जीवन यात्रा के जो तीन अंष कहे जाते हैं, उनमें से एक अंष कला का है। हर व्यक्ति कलाकार है। बषर्ते वह जीवन जीने की कला में रमे। उसमें बसे। पिताजी इस मायने में निष्छल जीवन से जुड़ी इस समय की दुर्लभप्रायः कला से ही तो जुड़े थे। सोचता हूं, उन्होंने ही तो बहुत से अर्थों में जीवन में पसरे कुहासे को हटाने की कला से साक्षात् कराया। उपदेष देकर नहीं-अपने जिए से। अपेक्षा के अंधकार से वह सदा दूर रहे। उनकी सीख स्वाभिमान से जीने की थी। उसूलों पर कायम रहने की है। पेड़ की जड़ पेड़ का जीवन है। फूल-फल के लिए जड़ को मजबूत करना होता है। वह सदा हरी रखनी होती है। जड़ को खोदकर उपर ले आए तो उसका सौन्दर्य नष्ट हो जाता है। जीवन भी सूख जाता है। मुझे लगता है, जीवन जड़ को बचाते, उसके सौन्दर्य को अंवेरते वह जूझते रहे। संघर्ष करते रहे, कभी उसे बाहर नहीं आने दिया। याद है, उनका नश्वर शरीर पंचभूत में विलीन हो रहा था,  मन में उनके खरेपन, सच्चाई के जीवन और किसी के प्रति दुराग्रह नहीं रखने के उनके सैकड़ों किस्से ही तैर रहे थे। बहुधा वह लोगों को डांट देते पर क्षण बीतता और वह खुद ही भुल जाते कि उन्होंने कुछ कहा है क्या! 
अब जब वह नहीं है, सौन्दर्य की उनकी जीवन दीठ गहरे से समझ आ रही है। मनोभाव छुपाना आसान है, व्यक्त करना कष्टप्रद। कष्ट उठाना हर किसी के बस का कहां! पिताजी ने ताउम्र यह कष्ट उठाए। इसलिए कि उन्हें अपने को छुपाना नहीं आता था। अंदर से किसी का बुरा न चाहने वाले, सबके लिए कुछ न कुछ अच्छा करने की चाह के बावजूद कटुक्ति के वाक्यबाणों से वह सदा दूसरों को अपना दुष्मन बनाते रहे। शायद इसलिए भी कि भाषा का कारू कार्य उनके पास नहीं था। मन के अच्छे भावों को प्रचलित मीठे शब्दों में व्यक्त करना उन्हें नहीं आता था। वाक्यबाणों से अपने अच्छेपन को सदा वह खुद ही धोते रहे। अच्छेपन को कभी साबित नहीं होने दिया। दावपेच, छलकपट से वह कोसों दूर जो थे! कथित बुद्धि के चातुर्य का सौन्दर्य नहीं। चमक दमक की व्यावहारिकता को परे धकेलते वह जिए।  जिसे जब चाहे कुछ भी सुना दिया। जब चाहे डांट दिया। बगैर इस बात की परवाह किए कि इसका परिणाम क्या होगा। मन में किसी के प्रति कोई बैर-भाव नहीं पर सीधे सट सुना देने से उपजी गांठों को सहते विरोध उत्पन्न करते रहे। भले को भला, बुरे को बुरा कहने में कभी कोई हिचक नहीं की।
सोचता हूं, दान हाथ फैलाकर लिया जाता है। त्याग आंखो से दिखाई पड़ता है लेकिन आडम्बरहीन निष्छलता, भीतर की उदात्तता का वैराग्य किसे कहां दिखता है! पिताजी प्रेमस्वरूपजी ‘भूरजी’ इस मायने में वैरागी थे। छल वह जानते नहीं थे। झूठ चाहकर भी बोल नहीं सकते थे। अपने लिए कभी कोई चाह नहीं थी। दाव-पेच वह जानते नहीं थे।निर्भर वह किसी के रहना नहीं चाहते थे। नपा-तुला सुचिन्तित रहन-सहन। कहीं किसी से कोई अपेक्षा नहीं। दीनता कभी दिखाई नहीं। बल्कि सहानुभूति कोई जताए, यह भी उन्हें सहन नहीं था। पराभव कभी स्वीकार नहीं किया। 
किसी का दिल दुखाने की इच्छा कभी रही नहीं पर खारे बोल रोक पाना भी तो उकने बस में कहां था! अंदर से कभी किसी का बुरा नहीं चाहते हुए भी बहुतेरी बार बल्कि प्रायः ही बुरे व्यक्ति होने की छवि को वह भोगते रहे। सोचता हूं, खारे बोल अच्छी बात नहीं है पर उसके लिए अंदर के अच्छेपन के द्वार बंद कर देना भी तो कल्याणकारी नहीं है। पिताजी अंदर के अच्छेपन का द्वार खोले खारेपन की छवि से सदा ही बेपरवाह ही रहे। शायद इसलिए कि क्रोध से उनका गहरा नाता था। कोई बात मन माफिक नहीं हुई। कहीं कुछ अनैतिक दिखा, त्वरित क्रोध। दुर्वासा सा। 
यह उनके संस्कार थे। और संस्कारों के विरूद्ध बनावटीपन के सौन्दर्य को वह रच नहीं सकते थे। अब जबकि वह नहंी है, लगता है बहुतेरे उन्हें समझ ही नहीं पाए। पर वह जब नहीं रहे, तब यह भी देखा है कि जो उन्हें समझ गए थे, उनकी स्मृतियों को सहेजे उन्हें भूलना ही नहीं चाहते। जो व्यक्त नहीं कर पाए, वह अब व्यक्त कर रहे हैं। मुझे गर्व है कि मैं उनका पुत्र हूं। वह चले गए। सुख-दुख से परे। देना-पावना चुकाकर लोकातंरित हो गए हैं। अफसोस उनकी मृत्यु का नहीं है। यह तो स्वयं उनका वरण थी। आखिर वह यह कैसे सहन करते कि कोई उनकी तिमारदारी करे। कैसे वह यह सहन करते कि कोई उनसे सहानुभूति जताए। इसीलिए कुछ क्षण पहले जिन्होंने उनसे संवाद किया, उन्होंने उन्हें उनके फक्कड़पन के अलमस्त अंदाज में ही देखा। अफसोस इस बात का है कि जीते जी उनके जीवन जीने की उस कला को नहीं सीख पाया जो पास रहकर भरपूर सीख सकता था। पर इसके लिए उनके जैसा बनना पडता। भला यह बनावटीपन से भरे इस जीवन में क्या संभव था!

पिता की याद में पांच कविताएं 
मोक्ष पर्व
पहाड से बिछुड़
रो रहा जल,
अजस्त्र स्त्रोतों से
बहाती नीर
नदी मिल रही
सागर में।
समुद्र ही तो है
बहते पानी के
बंधन का-
मोक्ष पर्व!

ममेतर
तुम थे,
तो था
मैं,
और-
मेरा यह ममेतर!


साथ कब चली काया!
छत है-
तो छाया ;
पर-
साथ कब चली
काया!
लिखता हूं शब्द

शब्द
लिखता हूं शब्द
‘भोर’
घिर जाता है प्रकाश
जीवन सा लगता
मैं करता हूं जतन
बटोर लूं
सारा का सारा।
समा लूं शब्दों में
सदा के लिए।
कि-
क्षितिज से विदा लेता है सूर्य
काल गति गढ़ जाती है शब्द-
‘सांझ।’

भोर की नींद
उंघता सन्नाटा
बुन रहा-
उनके होने की ठौड़।
चुपचाप
बर्तन में उड़ेलकर दूध
चला गया दूधिया
कराते हुए
उनके न होने का अहसास।
पिता होते तो
रोबदार आवाज
करती नींद में खलल।
भले सामने कुछ नहीं कह पाते
पर
मन में पलता जल्दी उठा देने का रोश।
अब जबकि-
नहीं है पिता
लापता है,
भोर की वह नींद।




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