प्रख्यात कत्थक नृत्यांगना सितारा देवी (छाया सौजन्य : वेब) |
बहरहाल, मुझे लगता है, कलाओं में फ्यूजन की बहुत सी रूढि़यांे ने नृत्य की हमारी शास्त्रीयता को नुकसान पहुंचाते संवेदना को निरंतर लीर लीर भी किया है। लोक गायन भी इससे कहां अछूता रहा है! लंगाओं को जब राजस्थानी लोकगीत गाते सुनता हूं तो लगता है, वह उसका सूफीकरण कर लोक संवेदनाओं की हत्या कर रहे हैं। लोक नृत्यों और शास्त्रीय नृत्यों के साथ भी यही हो रहा है पर कथक आज भी शास्त्रीय, शास्वत है। इसलिए कि उसमें जीवन से जुड़ी संवेदनाओं के मूल को नहीं बिसराया। शायद इसलिए भी कि घरानों में आबद्ध होते हुए भी उसमें स्वतंत्रता की गुंजाईश है। मंदिरों से यह निकल राज दरबारों में पहुंचा। वहीं से इसके घराने निकले और पहचान भी बनी। बहुतों को हैरत हो सकती है, कथक घरानों के इतिहास के जिन प्रथम पुरूष सांवलदास का नाम लिया जाता है, वह राजस्थान के बीकानेर महाराजा अनूपसिंह के शासनकाल में हुए। बीकानेर के राजा कल्याणमल के पुत्र पृथ्वीराज (पीथल) कभी अकबर के नौ रत्नों में से एक गिने जाते थे। कथक नृत्य की प्राप्त रचनाओं में इनकी रचित ‘योगमाया’ और ‘कन्हैयाष्टक’ (अमृत ध्वनि) का विशेष महत्व है। स्वतंत्रतापूर्व के राजस्थान के चूरू के 199 गांव कथकों के केन्द्र रहे। बाद में वहां के ठिकानेदारों ने इन्हें आश्रय दिया। है ना यह सब रोचक!
कथक की परिवर्तन कथाओं पर आएं। जब तक यह मंदिरों में होता था, भगवान के चरणों में वंदन, नमस्कार होता था। दरबारों में आया तो नृत्य की लय ठाह, दुगुन, तिगुन, चैगुन को एक ही टूकड़े में नाच कर सम पर आने को सलामी कहा जाने लगा। रंगमंच का तोड़ा सलामी हो गई। मंदिरों से कथक के दरबारों में प्रवेष के बाद ‘प्रवेष का तोड़ा’ आमद हो गया। कहते हैं, नवाब वाजिद अली शाह ने कथक में ‘नाज’ नाम से पृथक से एक गत का ही चलन कर दिया। धु्रवपद से तराना, ठुमरी और गजल और अब तो सम-सामयिक विषयों को भी इसमें गुना और बुना जाने लगा है। पर इस समय यह जब लिख रहा हूं, एक बुरी खबर सुनने को और मिली है कि कथक की प्रख्यात नृत्यांगना सितारा देवी आईसीयू में है। आईए, मेरे साथ आप भी दुआ करें उनकी सलामती की।
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